Thursday, June 25, 2009

्सिर्फ़ जुगनू हो तुम

तुम सिर्फ़ एक जुगनू हो
लौ नहीं
जो राह दिखा सको
सूरज नहीं
जो अंधेरा मिटा सको

स्वंम दिशा भ्रमित
अन्धेरे को टटोलते मंडरा रहे हो
तुम्हारी दुम से निकलती रोशनी
आतिशबाजी से ज्यादा कुछ भी नहीं

तुम मृगतृश्ना हो
जो सन्ताप और छ्टपटाहट
के अलावा कुछ नहीं दे सकते
वो रंगमन्च हो
जो पर्दा बन्द होते ही बदरंग हो जाता है
फिर मैं तुम्हारा क्यूं अनुसरण करूं

तुम पलक झपकते ही कहीं खो जाओगे
और मैं
अंधेरे का सन्नाटा बन जाऊंगी
इसीलिये
अस्वथामा जैसे सत्य का शिकार नहीं होना चाहती
मुझे तलाश है
सम्पूर्ण सत्य की
जिसमें स्थायित्व हो,पूर्णता हो
जिसके सत्य होने में भी सत्यता हो

ऐसी  तलाश में
मुझे अंधेरे से लड़ना है
बहुत दूर अकेले चलना है
तुम जैसे
जुगनूओं के पिछे नहीं
मुझे तो
मशाल बन खुद जलना हैं

6 comments:

  1. ek sampuran satya ko talashti kawita ................sashakta rachana.....bahut ....bahut .....badhaee

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  2. मैं अस्वथामा जैसे सत्य का शिकार नहीं होना चाहती
    =======
    बहुत सारगर्भित अस्तित्व तलाश की कविता.
    बहुत खूब
    बधाई

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  3. मुझे सम्पूर्ण सत्य की तलाश है
    जिसमें स्थायित्व हो,पूर्णता हो
    जिसके सत्य होने पर भी सत्यता हो

    गंभीर है , कविता पसंद आने से भी बेहतर है शिल्प से ज्यादा भाव असर डालते है.

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  4. जुगनू को अपूर्णता और अर्ध सत्य का बिम्ब बनाकर आपने बार बार पढ़ी जा सकने वाली कविता का सृजन किया है. बधाई.

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  5. सुन्दर गहन अभिव्यक्ति!! बहुत बधाई.

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  6. वाह ! तुम क्या नहीं हो, तुम सब कुछ हो !

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