ॠतु बसंत
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Wednesday, April 7, 2021
मुक्तक
मैं अपने अश्कों की स्याही से ही हालात लिखती हूँ।
हरेक पीड़ा ओ बैचेनी, हरेक जज़्बात लिखती हूँ।
मैं जो बोलूं वो तुम समझो सदा ये हो नहीं सकता।
मैं मन के पन्नों पर ही इसलिए हर बात लिखती हूँ।
मुक्तक
वो कहता है कि मेरा है मगर, कुछ है जो खलता है।
मैं हंसती हूँ तो रोता है,मैं रोती हूँ तो हंसता है।
वो बातें भी बड़ी करता है, तालीमें भी अव्वल हैं।
मेरे दिल को न पढ़ पाया,मुझे वो अनपढ़ लगता है।
मुक्तक
अभी तक जो सुना हमने, अधिक ही अनसुना होगा।
यक़ीनन हम सभी के जाने कितने-कितने किस्से हैं।
कि यूं तो दिख रहे हैं हम समूचे सब ही बाहर से।
मगर भीतर ही, भीतर जाने, कितने-कितने हिस्से हैं।
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