कैसे सुनूँ
इतने सारे शब्द
करूँ कैसे
खुद को व्यक्त
कहीं निरर्थक न हो जाऊं
बाहर-भीतर के
इस कोलाहल में
खिड़कियाँ बंद कर लूँ तो क्या
रुक जायेगा तूफ़ान
अंदर बहुत है
समंदर सा उफान
बस दो ही रास्ते हैं
मेरे-सबके दरमियाँ
सब्र और वक्त
और इंतज़ार इनसे भी बड़ा पुल है
अँधेरे और सबेरे के बीच
तो ठहरो
थम जाने दो तूफान
हो जाने दो सबेरा
फिर गढ़ूंगी
कुछ उजियारे शब्द
करूंगी सब व्यक्त
उनसे भी
जो शब्दों का अर्थ खो चुके हैं
शायद इसीलिए
पाषाण हो चुके हैं।
ऋतु गोयल
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