अस्पष्ट लकीरें
और खुरदरी हथेलियाँ देखकर
लोग अक्सर मान लेते हैं कि
संघर्ष जी रहा होगा वह
अड़चनें खूब रही होंगी राहों में
तप कर भी कहां कुंदन बन पायेगा वह
पर
मैंने बंजर धरती पे जब से
लहलहाती फसलों को देखा
तो जान गई
सतह जैसी भी हो
वो सतही होती है
अहसास ,मुलायम हो गर भीतर
स्पष्ट हो इरादें और मजबूत,बुलंद
तो उग सकती है
इन हथेलियों पर तकदीर
बदल सकती है सोच की हर लकीर
कि तयसुदा कुछ भी नहीं होता
बस होता है तो
आदमी का आत्म विश्वास
ऋतु गोयल
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