Wednesday, April 10, 2013

धूप

 धूप


गरमाहाट
उतर आई अनगिनत किरणों  में बनकर धूप

धूप बस धूप भर नहीं 
आलिंगन है
सूरज का

सर्दी  की कंपकंपाती देह को देता  
 अपना प्यार 
 अपार ...

जी लेती  हूं रोम -रोम 
पूरी शिद्दत  से  
कण -कण धूप को

क्या पता
कल ये धूप
 रहे न रहे
क्या पता 
मैं कल 
रहूं न रहूं


नदी





नदी

बढ़ती नदी का
कुछ खो गया है
क्या हो गया है
वह सागर से मिलने जा तो रही है
पर कुछ उदास है
नदी को भी प्यास है
कभी तो सागर भी
उससे मिलने आये
गरजते-गरजते
कभी तो गुनगुनाये
हमेशा नदी ही उसके खारेपन में
अपनी प्यास क्यों बुझाती है
क्या सागर को प्रेम की रीत
निभानी नहीं आती है
पर वह क्या करे
यूं बढ़ते रहना ही
उसकी नियती है

शायद यही प्रकृति है

Tuesday, April 9, 2013

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Wednesday, February 13, 2013

तरबूज



  तरबूज



ऊपर से हरा
भीतर से लाल
मीठा, बेमिसाल
एक तरबूज छोटा सा
मैं भी तुलवा लाई
पार्क के बाहर खड़े
तरबूज वाले से

वहां छोटे-छोटे तरबूज ही बिक रहे थे
शहर बड़ा था
पर परिवार बहुत छोटे दिख रहे थे

बड़े तरबूज बिकने को आतुर थे
कुछ भूली-बिसरी यादों से व्याकुल थे
पर वे लोग जो खरीद रहे थे तरबूज
बंटे हुये थे जायदाद की तरह
इसी लिये अधूरे थे
पूरे बड़े तरबूज का क्या करते

तरबूज वाला बेच नहीं पा रहा था
बड़े तरबूज आसानी से
क्योंकि भारी तरबूज उठाने वाले मजबूत हाथ
अब मां बाप के साथ नहीं
 डालर के हाथ हो गये थे
और जो साथ थे
उन्हें तरबूज खाने में
कोई दिलचस्पी नहीं थी
इसीलिये बड़े-बड़े शहर में
छोटे-छोटे तरबूज
रिवाज़ की तरह उपज रहे थे
और बड़े तरबूज
मन ही मन किलस रहे थे

अंतत:
घर आकर जब काटने लगी
मैं भी अपना
छोटा सा तरबूज
तो मेरे गांव के घर का
वो बड़ा तरबूज
मुझे मुंह चिढ़ाने लगा
जिसे बांट कर खाते थे
हम सब
प्यार में
परिवार में
आज
बंट कर खा रहे हैं