Sunday, July 25, 2010

मौन


       मौन 

शब्द ज़रुरी नहीं
अभिव्यक्ति के लिये
साथ होना भर काफ़ी है
व्यक्ति के लिये
अहसास
कोई भाषा नहीं मांगता
प्यार है
तो व्यक्त हो ही जायेगा
थोड़ा चुप रह कर तो देखो
सच मज़ा आयेगा
कहां ओढ़ते हैं पेड़
शब्दों का आवरण
और चुपचाप
सूरज,चांद,तारे भी
जी लेते हैं
अपना आचरण
शब्दों ने प्यार को
प्यार कह कर
कमज़ोर ही किया है
मौन के संगीत को
कोलाहल ही दिया है
मेरे भीतर भी
एक संगीत है
मौन
पर उसे
सुने कौन

4 comments:

  1. कुछ तो है इस कविता में, जो मन को छू गयी।

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  2. नियामत है सहज स्वीकृत मौन
    जब यह बोलता है तो
    अनसुना कर सकता है कौन?

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  3. "पेड़ों की लम्बी कतार कितनी अनुशासित है
    चुप रह कर भी खुद ब खुद परिभाषित है
    सूरज,चांद,सितारों की चुप्पी तक चमकती है
    चुप रह कर तो ओस की बूंद तक छलकती है"

    बहुत खूब तथा मुखर है "मौन"

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  4. समझने को मेरी वो हर समझ, बेताब रहता है,
    मैं होठों से बयां करता, वो आँखों ही से कहता है,
    अगर हम दूर रहते हैं ज़मीं और असमानों से,
    वो जो कहता मैं सुनता हूँ, मैं जो कहता वो करता है,

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