Sunday, October 15, 2023

मेरे राम

सिया जी के संग राम,ले रहे हैं सब नाम
नाम बिन झूठी सब कलियुगी माया है
नाम एक सत नाम पूरन करे जो काम
तर गया जिसने भी राम धन पाया है
मुख में हो गर नाम दिल में भी रहे राम
भक्त हनुमान ने ज्यों राम को बसाया है
और चाहे जितनी भी भव्य रामलीला करो
तुलसी से सीखो कैसे राम जी को ध्याया है


राम जी विचार है आचार ,व्यवहार है जी
पूजा व आराधना से राम नहीं मिलते
मंदिर बनाएं चाहे संपदा लुटाएं हम
भाव बिन राम जी ना कभी भी पिघलते
दीनों के दयालु राम कितने कृपालु राम
नाम भर लिखने से पत्थर हैं तरते
शबरी के झूठे बेरों में भी मीठा भाव चखा
यूं ही कोई राम भगवान नहीं बनते





Wednesday, July 20, 2022

कोई है जो बोलता है



             मौन

ढेरों प्रश्न-उत्तर
अनुत्तरित कतार में खड़े थे
अनगिन शब्द व वाक्य
अधरों के द्वार पर अड़े थे
मन में भावों का झंझावात था
तन की हरकतों में चक्रवात था
सौरमण्डल में अक्षरों के ग्रह-उपग्रह
तूफ़ानीय गति से घूम रहे थे
हर पल खामोशियों के जंगल उग रहे थे
भाषाओं के संसार में 
यकायक गूंगे हो गए थे सब के सब
विलक्षण थी वो दुनिया
जहाँ गीत-संगीत,अभिव्यक्ति खामोश थे 
पर हाँ
कोई था जो बोल रहा था
भीतर-बाहर,जन्म-जन्मांतर की
परतें खोल रहा था
वो गुनगुना रहा था
भीतर ही भीतर कुछ गा रहा था
तटस्थ था,खुशहाल था
अजीब था,बेमिसाल था
जिसे हम अब से पहले नहीं जानते थे
साधना के पहले कहाँ पहचानते थे
पर अब जाना
वो कौन था
दरअसल
वो मौन था
वो मौन था
वो मौन था
         ऋतु गोयल

Monday, June 27, 2022

मौन

ढेरों प्रश्न-उत्तर
अनुत्तरित कतार में खड़े थे
अनगिन शब्द व वाक्य
अधरों के द्वार पर अड़े थे
मन में भावों का झंझावात था
तन की हरकतों में चक्रवात था
सौरमण्डल में अक्षरों के ग्रह-उपग्रह
तूफ़ानीय गति से घूम रहे थे
हर पल खामोशियों के जंगल उग रहे थे
भाषाओं के संसार में 
यकायक गूंगे हो गए थे सब के सब
विलक्षण थी वो दुनिया
जहाँ गीत-संगीत,अभिव्यक्ति खामोश थे 
पर हाँ
कोई था जो बोल रहा था
भीतर-बाहर,जन्म-जन्मांतर की
परतें खोल रहा था
वो गुनगुना रहा था
भीतर ही भीतर कुछ गा रहा था
तटस्थ था,खुशहाल था
अजीब था,बेमिसाल था
जिसे हम अब से पहले नहीं जानते थे
साधना के पहले कहाँ पहचानते थे
पर अब जाना
वो कौन था
दरअसल
वो मौन था
वो मौन था
वो मौन था
         ऋतु गोयल



Wednesday, January 5, 2022

कविता(मन छूट रहा है)

धुंधला जाती है चलते-चलते जब भी मंज़िल।
तब अपने नैनों को जुगनू बना लेती हूं।
घना अंधेरा छा जाता है जब भी बाहर।
तब भीतर-भीतर एक दीया जला लेती हूं।

सौ-सौ दियें जलाऊं बेशक बाहर फिर भी।
ज्ञान बिना अज्ञान अंधेरा बो जाता है।
इस खातिर अंतर को मैं पहले रौशन करती।
फिर सारा तम ही खुद ब खुद ही खो जाता है।

खुद का अता-पता न हमको फिर भी पागल।
मन ये ढूंढ रहा न जाने किसको जाने।
अपनी ही साँसों के सरगम को न गाया।
कोलाहल को गा-गा कर हम हुए दीवाने।

एकांत साध ले ऐसा मन पे वश न पाया।
खुद का साथ ही हमको हरदम ही उकताया।
भीड़-भाड़ में बेशक हो हम निपट अकेले।
फिर भी हमने मेले में ही मन बहलाया।

भूल रहे हम,सब के सब हैं यहां मुसाफिर।
और दुनिया है केवल एक मुसाफिर खाना।
जो आने के संग जाने की करे तैयारी।
वही सुखी है जिसने इस सच को पहचान।

मृगतृष्णा के पीछे भागूं भागूं कितना।
भाग-भाग कर मन ही पीछे छूट रहा है।
प्यास बुझेगी इस मरुभूमि में क्या मेरी।
मन-मृग ढूंढ-ढूंढ कस्तूरी टूट रहा है।



गीत(वो ही है दीवार)

तारीख बदली,साल बदला फिर से अबकी बार।
बेशक हो ये नया कैलेंडर, पर वो ही दीवार।

नामों की लंबी सूची पर, उनमें अपने कौन।
वक्त की छलनी में छन-छन के, हो जाते सब मौन।
आख़िर में जो रह जाते हैं, वही पुराने यार।
बेशक हो ये नया कैलेंडर, पर वो ही दीवार।


कुछ छोटे,कुछ हुए पुराने कुछ कपड़े बेहाल।
कुछ बांटे पर फिर यादों में, कुछ रखें सम्भाल।
तन की उम्र तो बढ़ती जाएं,मन की वो ही धार।
बेशक हो ये नया कैलेंडर, पर वो ही दीवार।

इंस्टा,ट्वीटर,फेसबुक पर, मिलना और मिलाना।
सोशल मीडिया बना सभी का, अब तो ठौर-ठिकाना।
पर सम्भाल के रखें अब भी,वो पीले अख़बार।
बेशक हो ये नया कैलेंडर, पर वो ही दीवार।

होटल,पब और मॉल, सिनेमा जा-जा कर न थकते।
दुनिया भर की सैर करें सब, पल भर को न टिकते।
पर लॉक डाउन में घर के आगे, बाकि सब बेकार।
बेशक हो ये नया कैलेंडर, पर वो ही दीवार।

ऑन लाइन का आया जमाना,आर्डर दिन भर आते।
सब्जी-भाजी,कपड़े-लत्ते,एप्प हमें दिलवाते।
पर चाहत को सुकूँ मिले खुद, जाके ही बाज़ार।
बेशक हो ये नया कैलेंडर, पर वो ही दीवार।

नए-नए वादों में लिपटे, नए-नए विज्ञापन।
भोली-भाली क्या जाने,ढूंढे उनमें अपनापन।
ठगी-ठगी से हरदम रहती,हो जिसकी सरकार।
बेशक हो ये नया कैलेंडर, पर वो ही दीवार।
          
 ऋतु गोयल

Saturday, November 13, 2021

गीत (कोई दे न दे)

खुद ही खुद की खुद्दारी को मान दिया है।
हक अपना लेकर खुद को सम्मान दिया है।

मैं भारत की नारी, मैं कमजोर नहीं हूँ भारी हूँ।
मैं काली,दुर्गा,लक्ष्मी हूँ, मैं जननी महतारी हूँ।
मैंने ही तो सबको जीवन दान दिया है।१।


मैं चेन्नमा,दुर्गा भाभी, झाँसी की रानी मर्दानी।
मैं सरोजनी नायडू, मैं ही पन्ना धाय सी बलिदानी।
मैंने भी आज़ादी में बलिदान दिया है।२।


मैं अहिल्या,जीजा बाई हूँ, शबरी,मीरा सी हूँ जोगन।
मैं वैदेही, मैं वनवासिन,राधा रानी सा पावन मन।
मेरी खातिर हरि ने गीता ज्ञान दिया है।३।


मैंने ही भाषा सिखलाई,तुम गढ़ते मेरी परिभाषा।
मेरी गोदी में पलते हो,उल्टा पड़ता फिर क्यूँ पासा।
मैंने निर्मिति की, तुमने व्यवधान दिया है।


केश खुले रक्खे अपने जीती जब-जब भी जंग हुई।
दांव लगी जब-जब नारी, बस मानवता ही दंग हुई।
सीता-द्रौपदी सबने ही इम्तेहान दिया है।

Wednesday, April 7, 2021

मुक्तक

मैं अपने अश्कों की स्याही से ही हालात लिखती हूँ।
हरेक पीड़ा ओ बैचेनी, हरेक जज़्बात लिखती हूँ।
मैं जो बोलूं वो तुम समझो सदा ये हो नहीं सकता।
मैं मन के पन्नों पर ही इसलिए हर बात लिखती हूँ।