Wednesday, April 10, 2013

धूप

 धूप


गरमाहाट
उतर आई अनगिनत किरणों  में बनकर धूप

धूप बस धूप भर नहीं 
आलिंगन है
सूरज का

सर्दी  की कंपकंपाती देह को देता  
 अपना प्यार 
 अपार ...

जी लेती  हूं रोम -रोम 
पूरी शिद्दत  से  
कण -कण धूप को

क्या पता
कल ये धूप
 रहे न रहे
क्या पता 
मैं कल 
रहूं न रहूं


नदी





नदी

बढ़ती नदी का
कुछ खो गया है
क्या हो गया है
वह सागर से मिलने जा तो रही है
पर कुछ उदास है
नदी को भी प्यास है
कभी तो सागर भी
उससे मिलने आये
गरजते-गरजते
कभी तो गुनगुनाये
हमेशा नदी ही उसके खारेपन में
अपनी प्यास क्यों बुझाती है
क्या सागर को प्रेम की रीत
निभानी नहीं आती है
पर वह क्या करे
यूं बढ़ते रहना ही
उसकी नियती है

शायद यही प्रकृति है

Tuesday, April 9, 2013

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