Thursday, January 21, 2010

डायरी


डायरी


मेरी उम्र
मेरे बरसों से नहीं
तेरे पृष्ठों से जुड़ी है
ओ डायरी
तेरे भरने तक
मेरा जीना बहुत जरूरी है
ये कोरे कागज़ नहीं
मेरी वे सांसें हैं
जिन्हें मैंने अब तक जीया नहीं हैं
कहो इन्हें भरे बिना ही मर जाऊं
यह बात सही है

डायरी
तुम शब्दों का वो सच हो
जिसका जनम आसान नहीं होता
अगर हो जाये तो कभी अवसान नहीं होता
इसीलिये
जीने दो शब्दों के साथ मुझे अभी और
भरने दो ये कोरे कागज़ ताकि
जी सकूं मरने के बाद भी
शब्दों के साथ
ज़िन्दगी बन कर

Monday, January 4, 2010

यहीं कहीं है....


         

   यहीं कहीं है....

जब  कभी
बहुत व्यस्त होती मां
चढ़ जाता मुझे बुखार
ताकि वह दौड़ी आये
सब छोड़ के काम                                                                                                      

मैं नये- नये बहाने करती
और मेरी भोली मां
नये- नये नुसखे
अलग-अलग तरीकों से उतारती नज़र
कभी तेल व बाती लिये
कभी नमक व राई लिये आती
किसी ओझा के भूत भागाओ मन्त्रों की तरह
न जाने क्या-क्या बुदबुदाती

मेरी एक छींक पर
तैतीस करोड़ देवी-देवता याद आते थे उसे
और मुझे उसकी गोद में सारा जहान
प्रार्थनाओं का अर्थ नहीं समझती थी वह
पर अपनी निस्छ्ल भावनाओं से मेरी ख्वाहिशों को
पूरा करने का रखती थी ज्ञान

अब जबकिं मैं जानती हूं
मेरे बहानों को भी सच समझ कर
आसमां धरती पे उठा लेने वाली
वह
अब नहीं है
फिर भी
उन आदतों की आदत से परेशान
अब भी
उन हाथों की छुअन को ढ़ूंढ़ती हूं
जो सारे कामों को छोड़
मेरा सिर सहलाती थी
वो नज़र ,झाड़फूंक ,प्रार्थनाएं
जो केवल अपनी आस्था व प्यार के कारण
असर दिखाती थी

बेशक
वह आज नहीं है
पर उसकी दुआओं का असर
मेरी सांसों में
ज़िन्दग़ी की तरह
यहीं है
यहीं कहीं है

Saturday, January 2, 2010

हाउस वाइफ़


हाउस वाइफ़


माचिस की डिब्बी सा आयताकार कमरा
और उस कमरे में
बुझी हुई तिल्ली सी मैं
जीती हूं अपने हिस्से की सांसें
जिसे ज़िन्दगी के सिवा कुछ भी
कहा जा सकता है
और मुझे मेरे सिवा कुछ भी

कभी मां
कभी पत्नि
कभी बहू
या कभी 
घर भर के खाने का मेन्यु

कभी सब्ज़ियों का ज़ायका
कभी उबली हुई सब्ज़ियों का उतरा हुआ रंग
कभी कोने में दुबकी झाड़ू
या कभी मायके की खिल्ली उड़ाता प्रसंग

मैं
मैगी का मसाला
बच्चों का टिफ़िन
दलिये का भूना रंग
मुस्कुराने का ढ़ंग
तड़के बजने वाला अलार्म
रोबोट जो कर दे हर काम
बस काम,काम और काम के अलावा
कुछ भी नहीं हूं
क्या इन सब के बीच 
मैं कहीं
ज़िंदा रही हूं

भूल गई हूं मैं
पहले वाला सर नेम लिखना
खुद सा खुबसूरत दिखना

जब कोई पुकारता है
अब मुझे मेरे नाम से
तो गुमनाम चिट्ठी सी लौट जाती हूं
वापस उसी के पास
किसी रिश्ते के साथ पुकारे जाने के लिये
क्योंकि
मैं सबके वास्ते
सबकी हो गई हूं
बस खुद ही कहीं खो गई हूं