Monday, January 4, 2010

यहीं कहीं है....


         

   यहीं कहीं है....

जब  कभी
बहुत व्यस्त होती मां
चढ़ जाता मुझे बुखार
ताकि वह दौड़ी आये
सब छोड़ के काम                                                                                                      

मैं नये- नये बहाने करती
और मेरी भोली मां
नये- नये नुसखे
अलग-अलग तरीकों से उतारती नज़र
कभी तेल व बाती लिये
कभी नमक व राई लिये आती
किसी ओझा के भूत भागाओ मन्त्रों की तरह
न जाने क्या-क्या बुदबुदाती

मेरी एक छींक पर
तैतीस करोड़ देवी-देवता याद आते थे उसे
और मुझे उसकी गोद में सारा जहान
प्रार्थनाओं का अर्थ नहीं समझती थी वह
पर अपनी निस्छ्ल भावनाओं से मेरी ख्वाहिशों को
पूरा करने का रखती थी ज्ञान

अब जबकिं मैं जानती हूं
मेरे बहानों को भी सच समझ कर
आसमां धरती पे उठा लेने वाली
वह
अब नहीं है
फिर भी
उन आदतों की आदत से परेशान
अब भी
उन हाथों की छुअन को ढ़ूंढ़ती हूं
जो सारे कामों को छोड़
मेरा सिर सहलाती थी
वो नज़र ,झाड़फूंक ,प्रार्थनाएं
जो केवल अपनी आस्था व प्यार के कारण
असर दिखाती थी

बेशक
वह आज नहीं है
पर उसकी दुआओं का असर
मेरी सांसों में
ज़िन्दग़ी की तरह
यहीं है
यहीं कहीं है

2 comments:

  1. par usaki duao ka asar
    meri
    saanson me jindagi ban kar dhadak raha hai.bilkul sahi kaha ,hamari jindagi maa ki duaon ka hi roop hai.

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  2. बेशक वो सब आज नहीं हैं
    पर उसकी दुआओं का असर
    मेरी
    सांसों में ज़िन्दग़ी बन कर धड़क रहा है


    -बहुत भावपूर्ण...



    ---


    ’सकारात्मक सोच के साथ हिन्दी एवं हिन्दी चिट्ठाकारी के प्रचार एवं प्रसार में योगदान दें.’

    -त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाना जरुरी है किन्तु प्रोत्साहन उससे भी अधिक जरुरी है.

    नोबल पुरुस्कार विजेता एन्टोने फ्रान्स का कहना था कि '९०% सीख प्रोत्साहान देता है.'

    कृपया सह-चिट्ठाकारों को प्रोत्साहित करने में न हिचकिचायें.

    -सादर,
    समीर लाल ’समीर’

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