Saturday, January 2, 2010

हाउस वाइफ़


हाउस वाइफ़


माचिस की डिब्बी सा आयताकार कमरा
और उस कमरे में
बुझी हुई तिल्ली सी मैं
जीती हूं अपने हिस्से की सांसें
जिसे ज़िन्दगी के सिवा कुछ भी
कहा जा सकता है
और मुझे मेरे सिवा कुछ भी

कभी मां
कभी पत्नि
कभी बहू
या कभी 
घर भर के खाने का मेन्यु

कभी सब्ज़ियों का ज़ायका
कभी उबली हुई सब्ज़ियों का उतरा हुआ रंग
कभी कोने में दुबकी झाड़ू
या कभी मायके की खिल्ली उड़ाता प्रसंग

मैं
मैगी का मसाला
बच्चों का टिफ़िन
दलिये का भूना रंग
मुस्कुराने का ढ़ंग
तड़के बजने वाला अलार्म
रोबोट जो कर दे हर काम
बस काम,काम और काम के अलावा
कुछ भी नहीं हूं
क्या इन सब के बीच 
मैं कहीं
ज़िंदा रही हूं

भूल गई हूं मैं
पहले वाला सर नेम लिखना
खुद सा खुबसूरत दिखना

जब कोई पुकारता है
अब मुझे मेरे नाम से
तो गुमनाम चिट्ठी सी लौट जाती हूं
वापस उसी के पास
किसी रिश्ते के साथ पुकारे जाने के लिये
क्योंकि
मैं सबके वास्ते
सबकी हो गई हूं
बस खुद ही कहीं खो गई हूं 

2 comments:

  1. अपने मनोभावों को बहुत सुन्दर शब्द दिए हैं।बधाई।

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