Saturday, October 25, 2014

तुम व्यस्त हो.....

                                   
            
 तुम व्यस्त हो.....




आज मूड तो नहीं था कि
 ब्रेकफास्ट के बाद
तुम्हारा लंच भी पैक करूं
और छोड़ने आऊं तुम्हे बाहर तक
आँफिस के लिए
मुस्कान ओढ़े
क्यूंकि
मेरी फुर्ती में रात भर की करवटो का असर
और आंखों में एक चुभन सी थी
जो आईना नहीं
बस तुम देख सकते थे
पर तुम व्यस्त थे


आज बिलकुल नहीं था मूड
बच्चों को बस स्टॉप छोड़ कर आने का
उनके उलझे उत्सुक मनों को सुलझाने का
क्योंकि खुद उनसुलझे थे कुछ प्रश्न
मेरे रक्त प्रवाह में
जिसे और कोई नहीं
बस तुम सुलझा सकते थे
पर तुम व्यस्त थे



आज बहुत गरमी थी
ढुलक रहा था पसीना इस्त्री करते हुए
जल रही थी किचन में गैस सी
भाप बन रहे थे भाव
पर किस पर झुंझलाती
किससे कहती
तुम तो खुद ही उबल रहे थे
बहुत व्यस्त थे

आज स्कूल भी गई थी मैं
पेरेंट्स- टीचर्स मीटींग अटेंड करने
और सारी शिकायते सारा ज़िम्मा
ढो लाई थी अपने
घर के जरूरी सामान के साथ
देर तक दुखते रहे थे मेरे हाथ
चाहती थी तुमसे कहती
तुम साथ चलते
पर तुम से क्या
तुम  खुद ही व्यस्त थे

आज बहुत धड़का था मन शाम को
काश की तुम होते
ले चलते मुझे लांग ड्राइव पर
कुछ लम्हों  को ही सही
भर देते मुझमें ज़िंदगी
थाम के मेरा हाथ
कहते कि तुम हो साथ
इसीलिए फ़ोन भी किया था तुम्हें
पर बिन सुने ही तुमने कह दिया था
की मैं व्यस्त हूँ

जानते हो आज  रात बहुत काली है
नींद नहीं आ रही
चाहती हूँ ढेर सारी करूं बाते
सिर्फ मेरी और तुम्हारी
तुम्हारे आगोश में सब कुछ भूल पाऊँ
कतरा- कतरा खुशबू सी बिखर जाऊँ
रौशन कर दूं इस रात को
ताज़ा -ताज़ा नई -नई हो कर
पर सो रहे हो तुम
कैसे जगाऊँ

कोई नहीं
जी लूंगी तुम्हारे हिस्से का भी वक्त
ज्यों जी रही हूँ पल-पल
खुद में
एक पुरुष
खुद से इतर

पर काश.....
तुम भी तो जीते
थोड़ी सी औरत
अपने भीतर

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