Wednesday, January 5, 2022

कविता(मन छूट रहा है)

धुंधला जाती है चलते-चलते जब भी मंज़िल।
तब अपने नैनों को जुगनू बना लेती हूं।
घना अंधेरा छा जाता है जब भी बाहर।
तब भीतर-भीतर एक दीया जला लेती हूं।

सौ-सौ दियें जलाऊं बेशक बाहर फिर भी।
ज्ञान बिना अज्ञान अंधेरा बो जाता है।
इस खातिर अंतर को मैं पहले रौशन करती।
फिर सारा तम ही खुद ब खुद ही खो जाता है।

खुद का अता-पता न हमको फिर भी पागल।
मन ये ढूंढ रहा न जाने किसको जाने।
अपनी ही साँसों के सरगम को न गाया।
कोलाहल को गा-गा कर हम हुए दीवाने।

एकांत साध ले ऐसा मन पे वश न पाया।
खुद का साथ ही हमको हरदम ही उकताया।
भीड़-भाड़ में बेशक हो हम निपट अकेले।
फिर भी हमने मेले में ही मन बहलाया।

भूल रहे हम,सब के सब हैं यहां मुसाफिर।
और दुनिया है केवल एक मुसाफिर खाना।
जो आने के संग जाने की करे तैयारी।
वही सुखी है जिसने इस सच को पहचान।

मृगतृष्णा के पीछे भागूं भागूं कितना।
भाग-भाग कर मन ही पीछे छूट रहा है।
प्यास बुझेगी इस मरुभूमि में क्या मेरी।
मन-मृग ढूंढ-ढूंढ कस्तूरी टूट रहा है।



गीत(वो ही है दीवार)

तारीख बदली,साल बदला फिर से अबकी बार।
बेशक हो ये नया कैलेंडर, पर वो ही दीवार।

नामों की लंबी सूची पर, उनमें अपने कौन।
वक्त की छलनी में छन-छन के, हो जाते सब मौन।
आख़िर में जो रह जाते हैं, वही पुराने यार।
बेशक हो ये नया कैलेंडर, पर वो ही दीवार।


कुछ छोटे,कुछ हुए पुराने कुछ कपड़े बेहाल।
कुछ बांटे पर फिर यादों में, कुछ रखें सम्भाल।
तन की उम्र तो बढ़ती जाएं,मन की वो ही धार।
बेशक हो ये नया कैलेंडर, पर वो ही दीवार।

इंस्टा,ट्वीटर,फेसबुक पर, मिलना और मिलाना।
सोशल मीडिया बना सभी का, अब तो ठौर-ठिकाना।
पर सम्भाल के रखें अब भी,वो पीले अख़बार।
बेशक हो ये नया कैलेंडर, पर वो ही दीवार।

होटल,पब और मॉल, सिनेमा जा-जा कर न थकते।
दुनिया भर की सैर करें सब, पल भर को न टिकते।
पर लॉक डाउन में घर के आगे, बाकि सब बेकार।
बेशक हो ये नया कैलेंडर, पर वो ही दीवार।

ऑन लाइन का आया जमाना,आर्डर दिन भर आते।
सब्जी-भाजी,कपड़े-लत्ते,एप्प हमें दिलवाते।
पर चाहत को सुकूँ मिले खुद, जाके ही बाज़ार।
बेशक हो ये नया कैलेंडर, पर वो ही दीवार।

नए-नए वादों में लिपटे, नए-नए विज्ञापन।
भोली-भाली क्या जाने,ढूंढे उनमें अपनापन।
ठगी-ठगी से हरदम रहती,हो जिसकी सरकार।
बेशक हो ये नया कैलेंडर, पर वो ही दीवार।
          
 ऋतु गोयल