तब अपने नैनों को जुगनू बना लेती हूं।
घना अंधेरा छा जाता है जब भी बाहर।
तब भीतर-भीतर एक दीया जला लेती हूं।
सौ-सौ दियें जलाऊं बेशक बाहर फिर भी।
ज्ञान बिना अज्ञान अंधेरा बो जाता है।
इस खातिर अंतर को मैं पहले रौशन करती।
फिर सारा तम ही खुद ब खुद ही खो जाता है।
खुद का अता-पता न हमको फिर भी पागल।
मन ये ढूंढ रहा न जाने किसको जाने।
अपनी ही साँसों के सरगम को न गाया।
कोलाहल को गा-गा कर हम हुए दीवाने।
एकांत साध ले ऐसा मन पे वश न पाया।
खुद का साथ ही हमको हरदम ही उकताया।
भीड़-भाड़ में बेशक हो हम निपट अकेले।
फिर भी हमने मेले में ही मन बहलाया।
भूल रहे हम,सब के सब हैं यहां मुसाफिर।
और दुनिया है केवल एक मुसाफिर खाना।
जो आने के संग जाने की करे तैयारी।
वही सुखी है जिसने इस सच को पहचान।
मृगतृष्णा के पीछे भागूं भागूं कितना।
भाग-भाग कर मन ही पीछे छूट रहा है।
प्यास बुझेगी इस मरुभूमि में क्या मेरी।
मन-मृग ढूंढ-ढूंढ कस्तूरी टूट रहा है।
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