बेशक हो ये नया कैलेंडर, पर वो ही दीवार।
नामों की लंबी सूची पर, उनमें अपने कौन।
वक्त की छलनी में छन-छन के, हो जाते सब मौन।
आख़िर में जो रह जाते हैं, वही पुराने यार।
बेशक हो ये नया कैलेंडर, पर वो ही दीवार।
कुछ छोटे,कुछ हुए पुराने कुछ कपड़े बेहाल।
कुछ बांटे पर फिर यादों में, कुछ रखें सम्भाल।
तन की उम्र तो बढ़ती जाएं,मन की वो ही धार।
बेशक हो ये नया कैलेंडर, पर वो ही दीवार।
इंस्टा,ट्वीटर,फेसबुक पर, मिलना और मिलाना।
सोशल मीडिया बना सभी का, अब तो ठौर-ठिकाना।
पर सम्भाल के रखें अब भी,वो पीले अख़बार।
बेशक हो ये नया कैलेंडर, पर वो ही दीवार।
होटल,पब और मॉल, सिनेमा जा-जा कर न थकते।
दुनिया भर की सैर करें सब, पल भर को न टिकते।
पर लॉक डाउन में घर के आगे, बाकि सब बेकार।
बेशक हो ये नया कैलेंडर, पर वो ही दीवार।
ऑन लाइन का आया जमाना,आर्डर दिन भर आते।
सब्जी-भाजी,कपड़े-लत्ते,एप्प हमें दिलवाते।
पर चाहत को सुकूँ मिले खुद, जाके ही बाज़ार।
बेशक हो ये नया कैलेंडर, पर वो ही दीवार।
नए-नए वादों में लिपटे, नए-नए विज्ञापन।
भोली-भाली क्या जाने,ढूंढे उनमें अपनापन।
ठगी-ठगी से हरदम रहती,हो जिसकी सरकार।
बेशक हो ये नया कैलेंडर, पर वो ही दीवार।
ऋतु गोयल
No comments:
Post a Comment