अनुत्तरित कतार में खड़े थे
अनगिन शब्द व वाक्य
अधरों के द्वार पर अड़े थे
मन में भावों का झंझावात था
तन की हरकतों में चक्रवात था
सौरमण्डल में अक्षरों के ग्रह-उपग्रह
तूफ़ानीय गति से घूम रहे थे
हर पल खामोशियों के जंगल उग रहे थे
भाषाओं के संसार में
यकायक गूंगे हो गए थे सब के सब
विलक्षण थी वो दुनिया
जहाँ गीत-संगीत,अभिव्यक्ति खामोश थे
पर हाँ
कोई था जो बोल रहा था
भीतर-बाहर,जन्म-जन्मांतर की
परतें खोल रहा था
वो गुनगुना रहा था
भीतर ही भीतर कुछ गा रहा था
तटस्थ था,खुशहाल था
अजीब था,बेमिसाल था
जिसे हम अब से पहले नहीं जानते थे
साधना के पहले कहाँ पहचानते थे
पर अब जाना
वो कौन था
दरअसल
वो मौन था
वो मौन था
वो मौन था
ऋतु गोयल
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