Thursday, September 17, 2009

१४ सितम्बर हिन्दी दिवस



          मन की भाषा


कल कल बह कर भाषाओं की सारी नदियां
मिल कर एक विशाल समन्दर बन जाती है
यही समन्दर बादल बन जब छा जाता है
मिट्टी से सौंधी सौंधी खुश्बू आती है
इस खुशबू  से सब का मन हो जाता चंदन
ऐसे मन की भाषा को मन करता वन्दन

जिस भाषा में मां चूल्हे को लेपा करती
जिस भाषा में घुरड़ -घुरड़ कर चक्की चलती
बूढ़ा बरगद जिस भाषा में पास बुलाता
 घर का आंगन दूजे आंगन से बतियाता
कण-कण में गूंजा करता है जिसका स्पंदन
ऐसे मन की भाषा को मन करता वन्दन

जिसमें चूड़ी कन्गना आपस में बतियायें
कुमकुम- बिंदिया जिसमें माथे को चमकायें
हल्दी , महेंदी जिस भाषा में रंग लाती हो
जिसमें दुल्हन सिमट- सिमट कर शरमाती हो
जिसमें सांसें सांसों का करती अभिनन्दन
ऐसे मन की भाषा को मन करता वंदन  

टीचर


             टीचर

 अ से अनार
आ से आम
वर्णमाला के एक- एक अक्षर
हमारी टीचर ने उसी तरह
हमारे मुंह में डाले
जिस तरह मां ने
मुंह में निवाले

मां आंचल में छिपाये रखना चाहती थी
टीचर दुनिया से मुकाबला करवाती थी
मां कभी परीक्षा नहीं लेती
ताकि हम हार न जाएं
टीचर बार- बार परीक्षाएं लेती
जिससे हम जीतना सीख पाएं

माँ अक्सर प्रेमवश
 हमारी गलतियां ढांपती थी
पर हम नेक बन सके
इसलिए टीचर
हर गलती पर डांटती थी


माँ हम संग अपना
भविष्य संजोती रही
पर टीचर यह जानते हुए भी कि
हम एक दिन दूर चले जायेंगे
हमारा भविष्य संवारती रही


 माँ कहती उधर मत चढ़ना गिर जाओगे
टीचर कहती बेशक गिरो
पर बार बार चढ़ना
एक दिन संभल जाओगे

Thursday, September 10, 2009

मुक्तक(अपनी पलकों पे आब रखती हूं)

अपनी पलकों पे आब रखती हूं
मैं भी आंखों में ख्वाब रखती हूं
बिन तेरे कैसा  कट रहा है सफ़र
हमसफ़र ये हिसाब रखती हूं

सबकी आंखों में एक समन्दर है
कितना धुंधला हर एक मंज़र है
आदमी हंस रहा ऊपर-ऊपर
सच तो कुछ और है जो अंदर है

गर बदी है तो संग शराफ़त है
प्यार है इसलिए  शिकायत है
है मुनासिब  हंसी वहीं केवल
आंसुओं की जहां हिफ़ाज़त है

लोग ऐसे भी मिलते जाते हैं
खास दिल में जगह बनाते हैं
नाम होता नहीं है  रिश्तों का
उम्र भर साथ जो  निभाते हैं