मन की भाषा
कल कल बह कर भाषाओं की सारी नदियां
मिल कर एक विशाल समन्दर बन जाती है
यही समन्दर बादल बन जब छा जाता है
मिट्टी से सौंधी सौंधी खुश्बू आती है
इस खुशबू से सब का मन हो जाता चंदन
ऐसे मन की भाषा को मन करता वन्दन
जिस भाषा में मां चूल्हे को लेपा करती
जिस भाषा में घुरड़ -घुरड़ कर चक्की चलती
बूढ़ा बरगद जिस भाषा में पास बुलाता
घर का आंगन दूजे आंगन से बतियाता
कण-कण में गूंजा करता है जिसका स्पंदन
ऐसे मन की भाषा को मन करता वन्दन
जिसमें चूड़ी कन्गना आपस में बतियायें
कुमकुम- बिंदिया जिसमें माथे को चमकायें
हल्दी , महेंदी जिस भाषा में रंग लाती हो
जिसमें दुल्हन सिमट- सिमट कर शरमाती हो
जिसमें सांसें सांसों का करती अभिनन्दन
ऐसे मन की भाषा को मन करता वंदन
Are waah..bahut sundar bhav..
ReplyDeleteritu ji badhayi..ho kavita dil jeet li..
hindi ki jay...aapko shubhkamnaaye..