मुक्तक
मान और सम्मान भरा था कितना आदर करते थे
गुस्सा हैं या खुश बाबू जी हम भावों को पढ़ते थे
अब बाबू जी हमको अपने बच्चों से डर लगता है
आंख दिखाते हैं ये हमको हम आंखों से डरते थे
भीतर -भीतर छुप-छुप कर ही रो लेते हैं बाबू जी
अपने दिल की व्यथा कथा को कब कहते हैं बाबूजी
वृक्ष सरीखे हैं वे अपना फ़र्ज़ नहीँ भूला करते
कड़ी धूप में तप कर भी छाया देते हैं बाबू जी
तिनका-तिनका जोड़-जोड़ कर घर बनवाते बाबू जी
अपनी ख्वाहिश टाल-टाल कर धन भर लाते बाबू जी
जिसे बुढ़ापे की लाठी कह कर इतराया करते थे
उस लाठी के कारण अब वृद्धाश्रम जाते बाबू जी