Tuesday, July 28, 2009

मैं और मेरी चिड़िया



चिड़िया


एक थी चिड़िया
एक थी मैं
मैं थी चिड़िया
या चिड़िया थी मैं
यह समझना मुश्किल था
क्योंकि इतनी समानताएं थी हम दोनों में
कि लोग अक्सर मुझे चिड़िया कहते थे
और चिड़िया को मुझ जैसा
हमने कितनी ही शाखों पर झूलें डाले थे
झूलों पर झूलाए थे सपने
सपनों में छोटी छोटी चाहत
और चाहत में क्या
बस गलियां,सखियां और अपने
पर जैसे- जैसे हमारे कद
हमारे झोटों से ऊंचे होने लगे
न जाने किसकी नज़र लगी
हमारे पंख हम से छीन लिये गये
और एक रस्म निभायी गई
जिसमें गलियां,सखियां, अपने
सब तो दूर हुएं ही
मेरी चिड़ियां भी मुझसे बिछुड़ गई
अब मुझे कोई चिड़िया नहीं कहता
शायद चिड़िया को भी मुझ जैसा

अब जब भी जाती हूं उन गलियों में
वो चिड़िया दिखायी नहीं देती
वह भी रुखसत हो गयी होगी कहीं
क्योंकि
मायके में बिन बिटिया के चिड़िया के क्या मायने
और ससुराल वाले क्या जाने
यह ससुरी चिड़िया
किस चिड़िया का नाम है 

तुम और तुम्हारी आंखें



आंखें 

तुम और तुम्हारी आंखें
कितना कुछ कहती हैं खामोश रह कर
इसी खामोशी को पढ़ने समझने में जुटी हूं मैं
तब से अब तक
जितना भी समझा हैं अब तलक इन्हें
यहीं पाया है कि तुम्हारी आंखों में ही समाया है
दरअसल तुम्हारा सारा व्यक्तित्व

इनमें देखा है मैंने
असंख्य रंग बिरंगी मछलियों को तैरते
अनगिन परिंदों को उड़ान भरते
कभी रेगिस्तान सा रुखापन, पर्वतों सी दृढ़ता
मजनूंओं सा बांवरापन,भंवरों सी चंचलता
इसीलिये तुम और तुम्हारी आंखें
पर्याय हो
एक दूसरे के

बहुत सुन्दर हैं ये क्योंकि इनमें
तुम्हारे अज़ीज सपनों की
 तस्वीर सजी दिखाई देती हैं मुझे
और हां अब इन तस्वीरों में
मैं भी दिखने लगी हूं
जैसे जनमों से सपनों की तरह
मैं भी तुम्हारी सगी हूं

तुम्हारी आंखों में सैलाब है, धुआं है
पर आंखों में हमेशा तैरती
 लहरें डूबने नहीं देती मुझे
ले आती है सुरक्षित साहिल तक


हां तुम्हारी आखों में
मेरा मन खिलता है
और किसी स्त्री को
साहिल
वाकई बड़ी मुश्किल से मिलता है

Sunday, July 19, 2009

जुही की कली सी



     

तेरा प्यार नौका सा हिचकोले खाता है



        मेरा प्यार नदिया सा .....

तेरा प्यार नौका सा हिचकोले खाता है
मेरा प्यार नदिया सा बढ़ता ही जाता है

थोड़ी सी ऊंची लहरों से जो है घबराती
वो कश्ती अपने साहिल तक पहुंच नहीं पाती
पर्वत और चट्टानों से जो राह बनाती है
वो नदिया खारे सागर से मिलने जाती है
हां प्यार में तो पागल मन को सब भाता है
मेरा प्यार नदिया सा

रोम रोम सागर में नदिया यूं घुल जाती है
नदी न रह कर बूंद- बूंद सागर कहलाती है
सागर बन -बन कर वह जब -जब तट तक आती है
रेत भी नम हो -हो कर उसकी यादें गाती है
क्यों चैन उसे सागर में खोकर आता है
मेरा प्यार नदिया सा

नदिया से यूं प्यार निभाता है सागर का जल
खुश हो कर वो तपता जाता बन जाता बादल
बादल बन सारी धरती पर सदा बरसता है
कण -कण भीग प्यार में सबका जीवन हंसता है
हां हरियाली का भी पानी से नाता है
मेरा प्यार नदिया सा

घर



           घर 

घर तो घर होता है
जहां सबका बसर होता है
घर वो दर होता है
जहां कोई न ड़र होता है

चाहे जितना ऊंचा उड़ ले
पंछी घर आता है
चाहे दर -दर खा ले ठोकर
घर ही अपनाता है
नीड़ तलक पंछी का
इक लम्बा सफ़र होता है
घर तो घर होता है

घर भाई- बहनों की राखी
बाबा की लाठी है
आंधी तूफ़ां सब सह ले जो
मां सी कद काठी है
घर की आबो हवा में
जादू-सा असर होता है
घर तो घर होता है

आंगन से आकाश की बातें
बारिश की टप -टप है
छोटे -छोटे बच्चों की भी
खूब बड़ी गप -शप है
घर का हर इक  कोना 
छाया का शजर होता है 
घर तो घर होता है

चूड़ी, बिन्दियां, पायल, कंगना,
आंखों की भाषा है
घर बंजारे मन की सबसे
पहली  अभिलाषा है
जो हैं बेघर उन पे
मौसम का कहर होता है
घर तो घर होता है

Wednesday, July 8, 2009

मैं तेरे नाम


     तेरे नाम का दीया जलाती हूँ

मैं तेरे नाम का
अब भी दीया जलाती हूं
क्या तुम्हें मैं भी
उतनी ही याद आती हूं

बस नज़र की छुअन थी
भावना का बन्धन था
ऐसा बन्धन था जिसमें
आसमान सा मन था
मन में सपने थे
परिंदों की तरह उड़ते थे
हौसलें मेघ बन के
हर घड़ी घुमड़ते थे
तुम्हें छू कर हवा का
झोंका जब भी आता था
मोर की तरह रोम- रोम
झूम जाता था
आज तक भी उसी
बारिश में भींग जाती हूं
क्या तुम्हें मैं भी
उतनी ही याद आती हूं

तेरे अहसास मेरे
मन में  चहचहाते थे
हर सुबह अपनी मधुर
धुन से वो जगाते थे
दिन की बगिया में खिला
करते सुमन पल -पल में
उसकी खुशबू सी महकती थी
मेरे आंचल में
मेरी नींदों में रोज़
ख्वाब मुस्कुराता था
वो जगाता कभी तो
प्यार से सुलाता था
अब भी उस ख्वाब का
काजल में नित लगाती हूं
क्या तुम्हें आज  भी
उतनी ही याद आती हूं

सावन उनसे जाके कहना रे



 
     सावन कहना रे 

सावन उनसे जाके कहना रे
इस मौसम में भी
उनके बिन
कैसा रहना रे

मन तो मन है
देख के बादल
चहक उठा
मचल गया
पर बादल यूं बरसा
मुझको छोड के प्यासी
निकल गया
कितनी बारिश लौट गयी यूं
अब ना दहना रे

बाहों के झूलों में झूलूं,
 झोंटें दें उनकी बतियां
गुलमोहर सी खिली शाम हो
रजनीगन्धा सी रतियां
साथ के चन्दन की खूशबू में
 संग -संग बहना रे

दोनों हाथों में हैं कंगन
लेकिन उनमें खनक नहीं
बिंदिंया हैं पर चमक नहीं है
पायल हैं पर छमक नहीं
हर गहना,
 गहना हो जाये
 खुद ही पहना रे