तेरे नाम का दीया जलाती हूँ
मैं तेरे नाम का
अब भी दीया जलाती हूं
क्या तुम्हें मैं भी
उतनी ही याद आती हूं
बस नज़र की छुअन थी
भावना का बन्धन था
ऐसा बन्धन था जिसमें
आसमान सा मन था
मन में सपने थे
परिंदों की तरह उड़ते थे
हौसलें मेघ बन के
हर घड़ी घुमड़ते थे
तुम्हें छू कर हवा का
झोंका जब भी आता था
मोर की तरह रोम- रोम
झूम जाता था
आज तक भी उसी
बारिश में भींग जाती हूं
क्या तुम्हें मैं भी
उतनी ही याद आती हूं
तेरे अहसास मेरे
मन में चहचहाते थे
हर सुबह अपनी मधुर
धुन से वो जगाते थे
दिन की बगिया में खिला
करते सुमन पल -पल में
उसकी खुशबू सी महकती थी
मेरे आंचल में
मेरी नींदों में रोज़
ख्वाब मुस्कुराता था
वो जगाता कभी तो
प्यार से सुलाता था
अब भी उस ख्वाब का
काजल में नित लगाती हूं
क्या तुम्हें आज भी
उतनी ही याद आती हूं
ऐसा बन्धन था जिसमें आसमान सा मन था
ReplyDeleteआसमान तक उडान भर रहा है ये रचना
बहुत खूबसूरत
अब तलक में उसी बारिश में भींग जाती हूं
ReplyDeleteक्या तुझे मैं भी उतनी ही याद आती हूं
आसान लफ्ज़ों में बड़ी मुश्किल सी बात कह दी है
badhiya likhi hai aapne yah kavita...balki bhaav. haan magar ravaangi men kuchh kami-si hai....!!
ReplyDeletebeautiful.....
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