Saturday, August 21, 2010

जिन्दगी

    ज़िन्दगी


ज़िन्दगी एक किताब है
अलबम है,सिनेमा है
जिसमें वो सब कुछ है
जो एक कहानी के लिये आवश्यक है
कथ्य या कथा तय है
आरम्भ से इति तक
पात्र हम स्वयं हैं
और हमारा लेखक,फोटोग्राफ़र,निर्देशक
अपनी कलम, कैमरे व कल्पनाओं के
अनुरूप हमें ढालता है
वो जब चाहे कथा में ट्विस्ट ला सकता है
जब चाहे किसी पात्र को एन्ट्री दिला सकता हे
या फ़िर कहानी से एकदम आउट कर सकता है
वो चाहे तो अपनी कल्पनाओं से कहानी में प्रेम भर कर
उसके शिल्प व सौंदर्य को निखार सकता है
या फिर बड़ी निर्ममता से ट्रेजिडी गढ़ कर
पात्रों को रुला सकता है
वो कहनी में इतने सस्पेंस भरता है
पात्रों को टेन्स करता है
कि पात्र कहानी के नायक-नायिका होते हुए भी
उसके दया के पात्र बन कर रह जाते हैं
और जब कोई रीयल लाइफ़ हीरो बनने की कोशिश करता है
तो उसका लेखक या निर्देशक
उसका द एन्ड कर ये बता देता है
कि जिसकी कल्पनाओं से कहानी का सृजन हुआ है
उसकी कलम की ताकत से बढ़ कर
कोई ताकत नहीं होती
और हम सब उसके गढ़े पात्र हैं
हमारी अपनी कोई कहानी नहीं होती

हमारे दरमियां


रिश्ते


    (१)

घर की एक-एक चीज़ को
कई-कई बार साफ़ करती है वह
शायद इस भ्रम में कि
उनके रिश्तों के दरमियां जमी
धूल साफ़ हो जायं





    (२)

वह जो शो पीस सजा है ना
खूबसूरत महंगा सा
ड्राईंगरूम की शोभा बढ़ाने
शुक्र है उसके दरमियां
बारिक दरारें नहीं दिखती
बस सज जाता है मकान
बेशक वहां
न मिट पाती हो थकान


शब्द



शब्द


कागज़ के टूकड़ों में हो गये व्यर्थ
जो शब्द गढ़ न पाये अर्थ
अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद
वे हारे हुए,मुज़रिम से खड़े हैं
और मैं उन सब को
बाइज़्ज़त रिहा करती हूं
उस अपराध के लिये
जो हो जाता है ,किया नहीं जाता
उन्हें गेंद की तरह उछाल देती हूं
खेलने के लिये
उड़ा देती हूं हवा में,बतियाने के लिये
और उन्हीं शब्दों से निकले
शब्दों संग बैठ जाती हूं
फ़िर से अर्थ गढ़ने के लिये

तुम्हारा प्यार





तुम्हारा प्यार...


टूटी पलकों से मन्नत में
मांगा है तुमको
हर बार
हिचकियों ने
चाहा है तुमको
मेरी थकन में भी है
तुम्हारा उल्लास
और बेहोशियों में होता है
तुम्हारा आभास
जब भी रुकती हूं
तो चलने को कहता है
इंतजार तुम्हारा
और जब टूट जाती हूं
तो जोड़ देता है
ये प्यार तुम्हारा


Friday, August 20, 2010

उसका होना



       उसका होना 

वो हवाओ के साथ
मेरी सांसों में उतर आया
और बन गया ज़िंदगी
प्रार्थना संग यूं
उतरा मेरे भीतर
कि  बन गया बंदगी
अब उम्र
 उसके नाम  है
वो हो या न हो
फ़र्क नहीं पड़ता
उसका होना
मेरे होने में लय है
इसीलिये
मेरे होने तक
उसका होना
तय है

Sunday, July 25, 2010

मौन


       मौन 

शब्द ज़रुरी नहीं
अभिव्यक्ति के लिये
साथ होना भर काफ़ी है
व्यक्ति के लिये
अहसास
कोई भाषा नहीं मांगता
प्यार है
तो व्यक्त हो ही जायेगा
थोड़ा चुप रह कर तो देखो
सच मज़ा आयेगा
कहां ओढ़ते हैं पेड़
शब्दों का आवरण
और चुपचाप
सूरज,चांद,तारे भी
जी लेते हैं
अपना आचरण
शब्दों ने प्यार को
प्यार कह कर
कमज़ोर ही किया है
मौन के संगीत को
कोलाहल ही दिया है
मेरे भीतर भी
एक संगीत है
मौन
पर उसे
सुने कौन

Thursday, January 21, 2010

डायरी


डायरी


मेरी उम्र
मेरे बरसों से नहीं
तेरे पृष्ठों से जुड़ी है
ओ डायरी
तेरे भरने तक
मेरा जीना बहुत जरूरी है
ये कोरे कागज़ नहीं
मेरी वे सांसें हैं
जिन्हें मैंने अब तक जीया नहीं हैं
कहो इन्हें भरे बिना ही मर जाऊं
यह बात सही है

डायरी
तुम शब्दों का वो सच हो
जिसका जनम आसान नहीं होता
अगर हो जाये तो कभी अवसान नहीं होता
इसीलिये
जीने दो शब्दों के साथ मुझे अभी और
भरने दो ये कोरे कागज़ ताकि
जी सकूं मरने के बाद भी
शब्दों के साथ
ज़िन्दगी बन कर

Monday, January 4, 2010

यहीं कहीं है....


         

   यहीं कहीं है....

जब  कभी
बहुत व्यस्त होती मां
चढ़ जाता मुझे बुखार
ताकि वह दौड़ी आये
सब छोड़ के काम                                                                                                      

मैं नये- नये बहाने करती
और मेरी भोली मां
नये- नये नुसखे
अलग-अलग तरीकों से उतारती नज़र
कभी तेल व बाती लिये
कभी नमक व राई लिये आती
किसी ओझा के भूत भागाओ मन्त्रों की तरह
न जाने क्या-क्या बुदबुदाती

मेरी एक छींक पर
तैतीस करोड़ देवी-देवता याद आते थे उसे
और मुझे उसकी गोद में सारा जहान
प्रार्थनाओं का अर्थ नहीं समझती थी वह
पर अपनी निस्छ्ल भावनाओं से मेरी ख्वाहिशों को
पूरा करने का रखती थी ज्ञान

अब जबकिं मैं जानती हूं
मेरे बहानों को भी सच समझ कर
आसमां धरती पे उठा लेने वाली
वह
अब नहीं है
फिर भी
उन आदतों की आदत से परेशान
अब भी
उन हाथों की छुअन को ढ़ूंढ़ती हूं
जो सारे कामों को छोड़
मेरा सिर सहलाती थी
वो नज़र ,झाड़फूंक ,प्रार्थनाएं
जो केवल अपनी आस्था व प्यार के कारण
असर दिखाती थी

बेशक
वह आज नहीं है
पर उसकी दुआओं का असर
मेरी सांसों में
ज़िन्दग़ी की तरह
यहीं है
यहीं कहीं है

Saturday, January 2, 2010

हाउस वाइफ़


हाउस वाइफ़


माचिस की डिब्बी सा आयताकार कमरा
और उस कमरे में
बुझी हुई तिल्ली सी मैं
जीती हूं अपने हिस्से की सांसें
जिसे ज़िन्दगी के सिवा कुछ भी
कहा जा सकता है
और मुझे मेरे सिवा कुछ भी

कभी मां
कभी पत्नि
कभी बहू
या कभी 
घर भर के खाने का मेन्यु

कभी सब्ज़ियों का ज़ायका
कभी उबली हुई सब्ज़ियों का उतरा हुआ रंग
कभी कोने में दुबकी झाड़ू
या कभी मायके की खिल्ली उड़ाता प्रसंग

मैं
मैगी का मसाला
बच्चों का टिफ़िन
दलिये का भूना रंग
मुस्कुराने का ढ़ंग
तड़के बजने वाला अलार्म
रोबोट जो कर दे हर काम
बस काम,काम और काम के अलावा
कुछ भी नहीं हूं
क्या इन सब के बीच 
मैं कहीं
ज़िंदा रही हूं

भूल गई हूं मैं
पहले वाला सर नेम लिखना
खुद सा खुबसूरत दिखना

जब कोई पुकारता है
अब मुझे मेरे नाम से
तो गुमनाम चिट्ठी सी लौट जाती हूं
वापस उसी के पास
किसी रिश्ते के साथ पुकारे जाने के लिये
क्योंकि
मैं सबके वास्ते
सबकी हो गई हूं
बस खुद ही कहीं खो गई हूं