Tuesday, June 2, 2009

मां










माँ



मुर्गे की बांग से रात के सन्नाटे तक
बाज़ार के सौदे से घर के आटे तक
बापू की चीख से बच्चों की छींक तक
सपनों की दुनिया से घर की लीक तक
माँ खुद को भुलाकर बस माँ होती थी
बिन मांगी एक दुआं होती थी

रोशन घर को देख कर
कभी किसी को ख्याल नहीं आता कि
इसके पीछे मोमबत्ती सी जलती मां है
पल पल पिघलती मां है
सब बेखबर
उससे परियों की कहानियां सुनते
आंचल से खुशियां चुनते
और मां चक्करर्घिरनी सी घूमती जाती
खुद अनकही पर सब की सुनती जाती

मां जब उदास होती
एक बात बडी खास होती
वह बापू से दूर दूर रहती
पर बच्चों के और पास होती

मां ने नही मांगा कभी/स्वर्ण कमल
सोने का हिरण ,कोई चमकती किरण
माँ को चाहिए था वो घर
जहां थे उनके नन्हें -नन्हें पर 
जिन्हें उड़ना सिखाना था 
आसमां दिखाना था
पर जब वे उड़ान भरने लगे
ज़मी से ही डरने लगे
मां का हर पंख उडते हुए मां से ही दूर जाने लगा
और वो घर जिसे मां ने बोलना सिखाया था
उसी का सन्नाटा मां को खाने लगा

खुद मिट कर जिनको जीना सिखाया
पग- पग पर जिन्हें संभलना सिखाया
जिनका झूठा खाया, लोरी सुनाई
बापू से जिनकी कमियां छिपाई
रात भर सीने से लगा चुप कराती रही
बच्चों का पेट भर हर्षाती रही
दो पाटों के बीच सदा पिसती रही
आँखों से दर्द बनकर रिसती रही
बापू के हज़ार सितम झेलती थी पर
बच्चों के खातिर कुछ ना बोलती थी मां
ऐसी खुशियां लुटाने वाली मां को
कभी कोई खुशी नही मिली
जिस मां से रोशन था सारा घर
उस मां के जीवन की सन्ध्या को
आखिरकार  रोशनी नहीं मिली

सूने घर की दिवारें 
मां के होठों पे चुप्पियां बो गई
और सबको रौशन करने वाली मां

अंतत: अंधेरों में खो गई

No comments:

Post a Comment