माँ
मुर्गे की बांग से रात के
सन्नाटे तक
बाज़ार के सौदे से घर के आटे तक
बापू की चीख से बच्चों की छींक तक
सपनों की दुनिया से घर की लीक तक
बाज़ार के सौदे से घर के आटे तक
बापू की चीख से बच्चों की छींक तक
सपनों की दुनिया से घर की लीक तक
माँ खुद को भुलाकर बस माँ
होती थी
बिन मांगी एक दुआं होती थी
रोशन घर को देख कर
कभी किसी को ख्याल नहीं आता
कि
इसके पीछे मोमबत्ती सी जलती
मां है
पल पल पिघलती मां है
सब बेखबर
उससे परियों की कहानियां
सुनते
आंचल से खुशियां चुनते
और मां चक्करर्घिरनी सी
घूमती जाती
खुद अनकही पर सब की सुनती
जाती
मां जब उदास होती
एक बात बडी खास होती
वह बापू से दूर दूर रहती
पर बच्चों के और
पास होती
मां ने नही मांगा
कभी/स्वर्ण कमल
सोने का हिरण ,कोई चमकती किरण
माँ को चाहिए था
वो घर
जहां थे उनके नन्हें
-नन्हें पर
जिन्हें उड़ना सिखाना था
आसमां दिखाना था
पर जब वे उड़ान
भरने लगे
ज़मी से ही डरने
लगे
मां का हर पंख
उडते हुए मां से ही दूर जाने लगा
और वो घर जिसे
मां ने बोलना सिखाया था
उसी का सन्नाटा
मां को खाने लगा
खुद मिट कर जिनको
जीना सिखाया
पग- पग पर जिन्हें संभलना सिखाया
जिनका झूठा खाया, लोरी सुनाई
बापू से जिनकी कमियां छिपाई
रात भर सीने से लगा चुप कराती रही
बच्चों का पेट भर हर्षाती रही
दो पाटों के बीच सदा पिसती रही
आँखों से दर्द बनकर रिसती रही
बापू के हज़ार सितम झेलती थी पर
बच्चों के खातिर कुछ ना बोलती थी मां
पग- पग पर जिन्हें संभलना सिखाया
जिनका झूठा खाया, लोरी सुनाई
बापू से जिनकी कमियां छिपाई
रात भर सीने से लगा चुप कराती रही
बच्चों का पेट भर हर्षाती रही
दो पाटों के बीच सदा पिसती रही
आँखों से दर्द बनकर रिसती रही
बापू के हज़ार सितम झेलती थी पर
बच्चों के खातिर कुछ ना बोलती थी मां
ऐसी खुशियां
लुटाने वाली मां को
कभी कोई खुशी नही
मिली
जिस मां से रोशन
था सारा घर
उस मां के जीवन
की सन्ध्या को
आखिरकार
रोशनी नहीं मिली
सूने घर की दिवारें
मां के होठों पे चुप्पियां बो गई
और सबको रौशन करने वाली मां
अंतत: अंधेरों में खो गई
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