Wednesday, June 3, 2009

औरत


       औरत

सारे घर को खिला देने के बाद
अपने लिये रोटियां
 कभी गोल नहीं बना पाती वह

ऐसा नहीं कि उसने कभी कोशिश नहीं की
पर रोटियां बेलते हुए
उन्हें आकार देते हुए
उसे बार-बार ये ध्यान आ जाता है
कि उसके कितने ही सपनों ने
 आकार खो दिये हैं
जिन्हें साकार करने की
 इच्छा तक
व्यक्त नहीं कर पाई वह
तो क्या फर्क पडता है
घर भर  की भांति
 रोटियां उसकी
गोल हो या आकारहीन
पेट तो भरता ही है 

5 comments:

  1. सही कहा है अपने लिये जहा तक मेरी निगाह जाती वह सपने भी नही देख पाती है. बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति
    बधाई

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  2. एक निवेदन करना चाहता हू – कृपया कमेंट से उचित समझे तो शब्द पुष्टिकरण हटा ले.

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  3. कविता में नैराश्य भाव है।

    खुशियों की भरमार जगत में दृष्टिकोण का फर्क चाहिए।
    जीवन-मूल्य स्थापित करने सार्थकता का तर्क चाहिए।।

    श्री एम० वर्मा जी की बातों से भी मैं सहमत हूँ।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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  4. bahut hi achhi kavita...........
    maarmik vishay par komal shabdaavli ka shringaar !
    waah !

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