बाल मजदूर
जब से देखा है
उसकी आखों में पथराये सपनों को
उसकी धड़कन में बसे अपनों को
तब से मेरे एहसास मेरा मज़ाक उडाने लगे हैं
सारी दुनिया के खि्लौनें मुझे मुंह चिढ़ाने लगे हैं
जब भी किसी मां की छाती में भूख से दूध नही उतरता
बाबा के खेत में जुत जाने पर भी बच्चों का पेट नहीं भरता
जवां बेटी के हाथों में हल्दी सजानी हो
घर के नन्हें मुन्नों की भूख मिटानी हो
तब वो मां अपने नैन दुलारे को
बाबा अपने प्रिय सहारे को
खुशी- खुशी भेज दिया करते हैं ऎसी जगह
जहां उनका सलोना
स्वयं बन जाता है खिलौना
और चाबी भरते ही
कभी बर्तन मलता कभी कू्ड़ा बीनता
कभी चाय पिलाता कभी रोटी खिलाता है
और कभी रंग बिरंगे गुब्बारों के साथ बेच देता है
अपने हसीन सपने
कार में बैठे दूसरे बच्चों को
जब कभी भूल कर उसके सपने में आ जाती हैं परियां
तो मांग लेता है अपने छोटे भाई बहनों के लिए
अपनी सबसे मनपसंद चीज़
जिसका वो नाम नही जानता
और जब नींदों में आती हैं
तो लोरी नहीं घर की भूख सुनाती है मां
ताकि दूसरे दिन वो फ़िर ज़िंदा हो सके
नन्हें कंधों पे ज़िम्मेदारियां ढ़ो सके
namaskar mitr,
ReplyDeletemain bahut der se aapki kavitayen padh raha hoon .. aap bahut accha lihte hai .. man ko chooti hui bhaavnaye shabd chitr ban jaate hai .. ye kavita mujhe bahut acchi lagi , dukh ki baat to ye hai ki is desh me ab bi baal mazdoor paaye jaate hai ..
badhai sweekar karen
dhanywad,
vijay
pls read my new poem :
http://poemsofvijay.blogspot.com/2009/05/blog-post_18.html