Saturday, April 6, 2019

मटके की प्यास

मिट्टी के घड़े

मुद्दत बाद
चंद बचे मिट्टी से जुड़े लोगों के बीच
आज अचानक कुछ मिट्टी के घड़े दिखे
तो वही
सौंधी सी खुशबू
अरसे की जुस्तजू
मेरे कंठ की ही नहीं
अंतस की प्यास बुझा गई
पुरानी रसोई घर की याद दिला गई
जहां एक मिट्टी का घड़ा
पद में बहुत बड़ा होता था
सूप,बर्तन,सिलबट्टे,मोमजसत्ते के बीच
सम्मान के साथ खड़ा होता था
छोटी सी रसोई में उसकी ठाठ थी
माँ और उसमें कुछ साँठ थी
वह रोज़ उसमें धो-धाकर जल भरती
और एक गगरी को,प्यार से दरिया करती

माँ जानती थी
घड़ा,मटका,सुराही,कुल्हड़,सिकोर
कुम्हार बड़ी शिद्दत से गढ़ते हैं
और जो पात्र मिट्टी से बनते हैं
वो कहीं न कहीं रिश्ते बुनते हैं
इसलिए
मिट्टी से जुड़ी माँ
घड़े को दुलार तो करती ही
देवता तक बना देती
रोज़ उसके समक्ष दीप जलाती
उसमें पुरखों का वास बताती
और जब मुहल्ले में
रतजगा होती या शहनाई बजती
तो घड़ा मां का वाद्य यंत्र बन जाता था
चाची,मौसी,बुआ,ताई सबको नचाता था
ग्रह प्रवेश हो या कूआँ पूजन
कुनबा घटता या बढ़ता हो
घड़ा बड़ा काम आता था
इस तरह
घड़ा,घड़ा भर नहीं
घर का पनघट था हर काम आने को
मीठा-मीठा,शीतल घर की प्यास बुझाने को

आज नहीं है वो
मेरे किचन में
कुछ चिल्ड वाटर से भरी बोतलें बंद हैं
एक ब्रांडेड फ्रीज़ में मेरे
पर घड़ा नहीं है पुरखों की याद दिलाने को

और सच तो यह है
अब भी जब भीगती है धरती बारिश की बूंदों से
तो सौंधी-सौंधी खुशबू मन में उथल-पुथल करती है
बस मिट्टी ही मुझको अपनी-अपनी लगती है

ऋतु गोयल( कविता एवं चित्र )

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