Saturday, April 6, 2019

तुम कहो ऐसी जगत की रीत क्यूं है

मेरा एक गीत जो अक्सर गुनगुनाया करती हूं....आज सांझा कर रही हूं

तुम कहो ऐसी जगत की रीत क्यों है
टूटता है दिल जहाँ, वह प्रीत क्यों है

बांधती हैं क्यों स्वयं को तट से नदियाँ
एक जैसा फ़लसफ़ा बीती हैं सदियाँ
इक नदी प्यासी रही जो जल भरी है
क्यों समुंदर में मिली, क्या बावरी है
उफ़! समुंदर ही नदी का मीत क्यों है
टूटता है दिल जहाँ, वह प्रीत क्यों है

कर दिए झंकृत समूचे तार मन के
अब अलंकृत हो गए हैं रोम तन के
महक उठती हर दिशा, मकरंद है ये
भावनाओं से बंधा अनुबंध है ये
फिर लबों पे यह बिरह का गीत क्यों है
टूटता है दिल जहाँ, वह प्रीत क्यों है

डोर से बन्ध कर पतंगें उड़ रही हैं
दूर रहकर भी हृदय से जुड़ रही हैं
गाँठ चुभती है मगर जुड़ती उसी से
तेज़ झोंके भी सहन करती ख़ुशी से
प्रेम में हर हार भी इक जीत क्यों है
टूटता है दिल जहाँ, वह प्रीत क्यों है
                         
                             ऋतु गोयल

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