Saturday, April 6, 2019

मुक्तक( संस्कार)

उनके जैसा कुछ-कुछ शायद अब भी है
देख-रेख की एक कवायद अब भी है
दादा जी का कमरा सूना है लेकिन
आंगन में एक बूढ़ा बरगद अब भी है

नकली जीवन घर-घर में अब बसता है
आज समय भी इस जीवन पर हँसता है
ड्राइंग रूम में शोभित है लाफिंग बुद्धा
घर का बूढ़ा भीतर रोज़ तरसता है

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