Monday, December 30, 2019
मुक्तक(प्रेम)
मुक्तक(स्वाभिमान)
Sunday, December 22, 2019
मुक्तक प्रेम
Friday, November 8, 2019
कविता बिटिया
Sunday, October 13, 2019
एक मामूली आदमी की फाइल
एक मामूली आदमी की फ़ाइल
हाँ मैं तलाश में हूँ
पर कहाँ ढूँढू उसे.....
ये ऊंचे भवन
लंबे गलियारें
गलियारों में कमरें
दरवाजों पर तख्तियां
तख्तियों पर ओहदें
कितनी टेबलें
कितनी फ़ाइलें
फाइलों में पृष्ठ
पृष्ठों में पत्र
पत्रों में शब्द
शब्दों में अक्षर
अक्षर सुनहरे
जिनमें लिखा है
धैर्य..धैर्य और धैर्य...
जी हां जो एक कमरे से
दूसरे कमरे से तीसरे
राज्य दर राज्य
शहर दर शहर
भवन दर भवन
होकर गुजरता है
यह धैर्य कितना प्रबल होता है
इन्हीं फ़ाइलों में जन्मता,फ़ाइलों में मरता है
पर कमबख्त ,किसी के हाथ नहीं आता है
मैं कैसे ढूँढू इसे....
वास्को दि गामा ने भारत की खोज की
पर आज खोई एक फ़ाइल तो ढूँढ के लाएं
यहां कितनी ही कुंजियाँ कहीं दब कर खो गई हैं
इनसे कहो इसे ढूंढ, फिर से इतिहास बनाएं
हमारी आदतें अपनी आदतों से मजबूर हो गई हैं
आम आदमी के हाथों से दूर हो गई हैैं
जिनके हाथ लंबे हैं
उनको हर चीज़ हाथों हाथ मिलती हैं
और वे जिनके हाथ कुछ नहीं होता
वे हाथ-पाँव मार कर भी
हाथ मलते रह जाते हैं
देखो
यह सफेद बाल कभी काले होते थे
अब झुर्रियां तक बुढ़ाने लगी हैं
ये चमचमाते जूते घर से रोज़ निकलते थे
टाई, बेल्ट बांधे एक जेंटलमेन था वह
पर फ़ाइल ढूंढते-ढूंढते
बेतरतीब हो गया
कतारों में खड़ा, अजीब हो गया
तब तय हुआ एक सपना,
उसके घर में
बेटों के,बेटी के सबके
सफर में
डॉक्टर,इंजीनियर,वैज्ञानिक सब
अपनी-अपनी फ़ाइलें बंद कर गए
कहीं कतारों में न टैलेंट मर जाये
इस खातिर अपनों से ही दूर चले गए।
और यह ओल्ड जेंटलमैन
फिर भी कतारों में खड़ा है
पुरातन है इसलिए
सिद्धांतों पर अड़ा है
पेंशन, पी एफ,ग्रेच्यूटी
न जाने कौन-कौन सी फ़ाइलें ढूंढ रहा है
और भी न जाने ऐसे कितने ही लोग
अपने ज़िंदा होने का सबूत लिए
कतारों में खड़े हैं
और कुछ तो सरकारी दफ़्तरों के
कालचक्र में ही औंधे मुंह पड़े हैं
भूलिये मत
आपकी,मेरी और हम सबकी
एक-एक फ़ाइल
एक ऐसे अफसर के हाथ में है
जो हमारे गुनाहों को कभी माफ नहीं करेगा
गर हमने बेगुनाहों को सज़ा दी
तो वो भी हमें जरूर दंडित करेगा।
जी हां
मैं ढूंढना चाहती हूं उसकी सब फ़ाइलें
बिना वक्त गवाएं
कही सांसें न थम जाएं
या फिर
सर्वर डाउन न हो जाएं
आइयें हम सब ढूंढते हैं वो फ़ाइल
जिसमें देश का भविष्य लिखा है
और जो हर आम आदमी के पसीने में दिखता है
Friday, July 26, 2019
कुछ मुक्तक कश्मीर पर
यह देश के विरुद्ध साफ एक जिहाद है।
यह तीन सौ सत्तर स्वयं में एक विवाद है।
नेता जी अलगाव-अलगाव गा रहे।
यह देश द्रोह है औ'यही आतंकवाद है।
यूं बाँट न सकोगे इसे एक जान है।
ये काश्मीर भारती का स्वाभिमान है।
जन-जन की इस आवाज़ को फारुख जी सुनो।
हारा है न हारेगा ये,हिन्दोस्तान है।
जो तुमको नहीं आता,अमन चैन से रहना।
तो हमको भी कब आया किसी जुल्म को सहना।
तुम चल रहे किस नक्शे-कदम है नहीं शरम।
नक्शा ही गर मिटा दिया तो फिर नहीं कहना।
जिसने सही हो पीर वो तो मीर हो गया।
चादर में हो न दाग़ तो कबीर हो गया।
यूं तो हरेक प्रांत ही हमको अज़ीज है।
पर जो दिल के है करीब वो कश्मीर हो गया/बेहद अजीज सबका कश्मीर हो गया।
माँ भारती का शीश है, कश्मीर हमारा।
आधा नहीं थोड़ा नहीं, सारा का ही सारा।
कटने नहीं देंगे इसे, झुकने नहीं देंगे।
जन्नत से भी बढ़ कर है ये, प्राणों से भी प्यारा।
वो है ईमानदार बड़ा,वो उदार है।
मोदी नहीं है नाम फ़क़त,एक विचार है।
प्रहरी है मातृभूमि का वो चौकीदार है।
जादू नमो-नमो का सभी पर सवार है।
Thursday, July 25, 2019
मुक्तक
है मेहरबान मुझ पे रब कितना
वो हुआ है किसी पे कब इतना
जानता था कि हंस के सह लूँगी/मेरी हस्ती पे था यकीं उसको
दे दिया गम मुझे जहाँ जितना
Saturday, April 6, 2019
पहली बारिश
झोंकें, बूंदें,बारिश, छम -छम
कितने नये नये से हैं
जैसे मेरी, पहली -पहली बारिश हो
महके मन की, बहकी -बहकी ख्वाहिश हो
जैसे कोई नई- नई सी लड़की
भीग रही हो, पहले -पहले सावन में
वैसे मैं भी मौसम की हर बारिश में
नई-नई हो जाती हूं, मन ही मन में
वह नई-नई सी लड़की
पहला -पहला प्यार गुनगुनाती है
और मैं वहीं पुराना गीत दोहराती हूं
जैसे नया-नया हो प्यार
पहली-पहली बारिश का
वह ताज़ा-ताज़ा लड़की
निखर जाती हैं बारिश में
और मेरी यादे,सूखे फूल
महक उठते हैं बारिश में
वह नई-नई सी लड़की
फूल,तितली,गौरया
बिजली बन जाती है
और मैं मन बन कर
खिल जाती हूं
पहली बारिश सी रिम-झिम, रिम-झिम
सावन के वहीं पुराने झूलें
वहीं महक पुरानी
हथेलियों पे रचाती हूं
मन ही मन मैं, पहला- पहला
दर्पण हो जाती हूं
जैसे मेरी पहली-पहली बारिश हो
वह लड़की
अब भी मुझमें है
कभी बड़ी नहीं होती
हर सावन में आती है
पहली- पहली बारिश बन कर
महकी-महकी
बहकी-बहकी
बिल्कुल ताज़ा,बिल्कुल वैसी
हर सावन में
भीतर मन में
आ जाती है
अब भी वह
पहली-पहली बारिश बन कर
एक अजब सी ख्वाहिश बन कर
बस तुम नहीं आये
देखो ना
हम सब यहीं हैं
जहाँ छोड़ गए थे तुम
वादा करके आने का
पर तुम नहीं आये
उस शाम मेरी पुतलियों में
सूरज डूबते-डूबते ठहर गया था
जो अब तक हैं सििंदुरी
तुम्हारे इन्तज़ार में
जिस दरख्त की शाख़ पर
झूल रहे थे तुम मुस्कुराते हुए
वहाँ बसन्त बसा है अब तक
तुम्हारे इंतज़ार में
उड़ना तो परिन्दें भी चाहते थे सुदूर
पर नहीं लौौटें, चहकते हैं यहीं
कि कही सूनी न हो जाये
मन की बगिया
तुम्हारे इंतज़ार में
एक अक्स तुम्हारा
ठहर गया था झील में
पगली! अब तक न पिघली
कि खो न जाओ तुम
तुम्हारे इंतज़ार में
वो अजान,घंटियों का नाद
पल भर को न रुका फिर
तुम्हारी इबादत में
और मेरी आदत में
पर तुम नहीं आये
देखो
हम सब यहीँ हैं
वो शाम,दरख़्त,परिंदे,झील
तुम्हारे इंतज़ार में
पर तुम कहाँ हो
अब तक नहीं आये
ऋतु गोयल
दोहे (देश पर)
गर मेरा ये देश है, तेरा भी ये देश
फिर क्यूं अलग-अलग दिखे ,तेरा -मेरा वेश
लचक-लचक कर चल रहे,होगी भीतर मोच
नहीं मिला उपचार तो,लंगडायेगी सोच
सब के सब उपद्रव के,पीछे जड़ है वोट
कुछ के पीछे सोच है,कुछ के पीछे नोट
सेंक रहे सब रोटियां,अजब लगी है आग
अपने-अपने दांव है,अपने-अपने राग
ऐसा हो मज़हब कोई, हो ऐसा एक धर्म
सारी सरहद तोड़ दे , हो ऐसा एक मर्म
बेवज़ह बदनाम हुए,इन पशुओं के नाम
इंसानों से दरअसल, अच्छे इनके काम
वक्त
कैसे सुनूँ
इतने सारे शब्द
करूँ कैसे
खुद को व्यक्त
कहीं निरर्थक न हो जाऊं
बाहर-भीतर के
इस कोलाहल में
खिड़कियाँ बंद कर लूँ तो क्या
रुक जायेगा तूफ़ान
अंदर बहुत है
समंदर सा उफान
बस दो ही रास्ते हैं
मेरे-सबके दरमियाँ
सब्र और वक्त
और इंतज़ार इनसे भी बड़ा पुल है
अँधेरे और सबेरे के बीच
तो ठहरो
थम जाने दो तूफान
हो जाने दो सबेरा
फिर गढ़ूंगी
कुछ उजियारे शब्द
करूंगी सब व्यक्त
उनसे भी
जो शब्दों का अर्थ खो चुके हैं
शायद इसीलिए
पाषाण हो चुके हैं।
ऋतु गोयल
आत्मविश्वास
अस्पष्ट लकीरें
और खुरदरी हथेलियाँ देखकर
लोग अक्सर मान लेते हैं कि
संघर्ष जी रहा होगा वह
अड़चनें खूब रही होंगी राहों में
तप कर भी कहां कुंदन बन पायेगा वह
पर
मैंने बंजर धरती पे जब से
लहलहाती फसलों को देखा
तो जान गई
सतह जैसी भी हो
वो सतही होती है
अहसास ,मुलायम हो गर भीतर
स्पष्ट हो इरादें और मजबूत,बुलंद
तो उग सकती है
इन हथेलियों पर तकदीर
बदल सकती है सोच की हर लकीर
कि तयसुदा कुछ भी नहीं होता
बस होता है तो
आदमी का आत्म विश्वास
ऋतु गोयल
मुक्तक(औरतों पर)
एक दिन तू मन की सच्चाई समझेगा।
तू भी बातों की गहराई समझेगा।
जिस दिन तू भी अपनों में तन्हा होगा।
क्या होती है ये तन्हाई समझेगा।
ज़ख्मों में जीती-मरती हूँ आदत है।
मेरे दिल में सबके लिए मोहब्बत है।
सितम वक्त के और साजिशे दुनिया की।
हँसते-हँसते सब सह लूँगी हिम्मत है।
मैं एक नदिया सी बहती हूँ क्या बोलूं।
तुझसे मिल कर खुश रहती हूँ क्या बोलूं।
तू सागर है तुझसे मिलने की खातिर।
दुनिया में क्या-क्या सहती हूँ क्या बोलूं।
स्त्रियां भूल नहीं पाती अहसास
एक कविता मनकही..
तहखानों,तस्वीरों और संदूकों में
छिपा तो लेती हैं बहुत कुछ
पर छोड़ नहीं पाती
इन्हें संभालना,सजाना
जब-तब सीने से लगा
सुबकियां लगाना
क्यूँकि
स्त्रियां अक्सर
चीज़ें तो रखकर भूल जाया करती हैं
पर कभी नहीं भूलतीं
रिश्ते,यादें, एहसास...
ताउम्र,तमाम सांस....
ऋतु गोयल
दामिनी
दमन दामिनी
चीर कर उसका बदन
महज़ समझ के
एक खिलौना
जता दिया तुमने
किस हद तक हो सकता है
आदमी घिनौना
तुम्हारी दरिंदगी के औजारों
और वहसी सोच ने
साबूत निगल लिया
उड़ान भरती
उस लड़की को
परवान चढ़ती
उस लड़की को
पर कभी आदमी होने की कवायद में
पूछना जरूर अपनी माँ से कि
जब भरोसे से भरी कोई लड़की
लड़कों से सारी जंग जितने के बाद
हार बैठती हो अपनी अस्मत
सरे आम चौराहे पर
जब जीने के अनंत सपने संजोये
किसी लड़की का दमन हो जाता हो
बढ़ती राहों पर
तब कैसा लगता है!
जब शर्मो-हया में लिपटी
ढकी-ढकी सी कोई लड़की
किसी अभागे दिन या रात
हाथ आ जाती हो दरिंदों के
या कोई बहन या बेटी
लूट जाती है हाथों, दहशतगर्दों के
तो उस पल
क्या चटख जाता है धरती पर
कि दुनिया की तमाम औरतें
महसूसती हैं भीतर...
दर्द....
भय....
और अपने
औरत होने का श्राप......
पूछना जरुर एक बार
अपनी माँ से...
स्वामी विवेका नन्द
अंश था परमहंस का
जान के विवेक गुरु ने
विवेकानंद बना दिया
प्यासे एक शिष्य को
ब्रह्मानन्द बना दिया
कौशल्य था शब्द को ब्रह्म कर दिया
जगत में उन्नत अपना धर्म कर दिया
जीत लिया मन सबका संबोधन से
पा लिया अमरत्व अपने उद्बोधन से
संतों का संत वो महंत था
सच्चा एक जग में अरिहंत था
साँसों की गागर को वो सागर कर गया
गा-गा के यश माँ को उजागर कर गया
धर्म के मर्म को
ऐसा वो बो गया
नरेंद्र बस नरेंद्र नहीं
अमरेन्द्र हो गया
मेरे जीवन प्रेरणा स्त्रोत स्वामी विवेकानन्दन की जन्म भूमि कोलकाता की मिट्टी की खुशबू अब भी मुझे महकाती है।थोड़ा ही सही उनके जैसा कुछ-कुछ बनाती है।
उनको कोटि-कोटि हिर्दय से नमन।
ऋतु गोयल
चादरों पर कसीदें
लड़की के सपने
रेशमी धागों से
काढ़े थे कसीदें
महीनों लगा कर...
रंग-बिरंगे फूल-पत्तें
यूँ मुस्कुरा उठे थे
ज्यों चादर नहीं
बगीचा हो महकता हुआ
कुछ-कुछ पंछी से भी
उड़ा दिए थे उसने
निसंदेह
भौंरें भी थे फूलों पर
दरअसल
माँ के संदूक में
ऐसे कई बगीचें
गढ़ दिए थे
उस बावरी लड़की ने....
अब जबकि
सब हो गए फुर्र
पंछी - भौंरें - रंग
बस
चादर भर है संग
फिर भी उसे
धोना,सूखाना, बिछाना
अब भी करती है
यह बावरी औरत......
ऋतु
मटके की प्यास
मिट्टी के घड़े
मुद्दत बाद
चंद बचे मिट्टी से जुड़े लोगों के बीच
आज अचानक कुछ मिट्टी के घड़े दिखे
तो वही
सौंधी सी खुशबू
अरसे की जुस्तजू
मेरे कंठ की ही नहीं
अंतस की प्यास बुझा गई
पुरानी रसोई घर की याद दिला गई
जहां एक मिट्टी का घड़ा
पद में बहुत बड़ा होता था
सूप,बर्तन,सिलबट्टे,मोमजसत्ते के बीच
सम्मान के साथ खड़ा होता था
छोटी सी रसोई में उसकी ठाठ थी
माँ और उसमें कुछ साँठ थी
वह रोज़ उसमें धो-धाकर जल भरती
और एक गगरी को,प्यार से दरिया करती
माँ जानती थी
घड़ा,मटका,सुराही,कुल्हड़,सिकोर
कुम्हार बड़ी शिद्दत से गढ़ते हैं
और जो पात्र मिट्टी से बनते हैं
वो कहीं न कहीं रिश्ते बुनते हैं
इसलिए
मिट्टी से जुड़ी माँ
घड़े को दुलार तो करती ही
देवता तक बना देती
रोज़ उसके समक्ष दीप जलाती
उसमें पुरखों का वास बताती
और जब मुहल्ले में
रतजगा होती या शहनाई बजती
तो घड़ा मां का वाद्य यंत्र बन जाता था
चाची,मौसी,बुआ,ताई सबको नचाता था
ग्रह प्रवेश हो या कूआँ पूजन
कुनबा घटता या बढ़ता हो
घड़ा बड़ा काम आता था
इस तरह
घड़ा,घड़ा भर नहीं
घर का पनघट था हर काम आने को
मीठा-मीठा,शीतल घर की प्यास बुझाने को
आज नहीं है वो
मेरे किचन में
कुछ चिल्ड वाटर से भरी बोतलें बंद हैं
एक ब्रांडेड फ्रीज़ में मेरे
पर घड़ा नहीं है पुरखों की याद दिलाने को
और सच तो यह है
अब भी जब भीगती है धरती बारिश की बूंदों से
तो सौंधी-सौंधी खुशबू मन में उथल-पुथल करती है
बस मिट्टी ही मुझको अपनी-अपनी लगती है
ऋतु गोयल( कविता एवं चित्र )
पंडित दीन दयाल उपाध्याय
पंडित दीन दयाल जी की जन्म शताब्दी को नमन.....
कुछ दीन हैं कुछ हीन पर ये तो दीन- दयाल हैं।
कुछ की सुकुड़ती भृकुटियां पर ये शौर्य- भाल हैं।
हैं शिखर एक युग-पुरुष, राष्ट्र का गौरव हैं ये
संघ की ये आत्मा और हम सभी का ढाल हैं।
राष्ट्र हित में निज हितों को त्याग कर चलते रहे।
संगठन सुदृढ़ हो इस खातिर बस बढ़ते रहे।
संघ की जब नींव पर जनसंघ की इमारत हुई
वे एक शिल्पकार से बस मूर्तियां गढ़ते रहे।
जय हिंद
ऋतु गोयल
मुक्तक औरतें
औरतें अपने परों में उड़ान रखती हैं।
कहीं जमीं तो कहीं आसमान रखती हैं।
हौसले में किसी से कम नहीं होती साहेब।
वक्त आने पर हथेली पे जान रखती हैं।
ऋतु गोयल
दो मुक्तक माँ पर
तेरे आँचल में माँ प्यार ही प्यार है।
सब गमों का दुखों का माँ उपचार है।
मैंने देखा नहीं उस भगवान को।
पर सुना है कि तू उसका अवतार है।
तूने जीवन दिया तेरा आभार है
इस दुनिया में तू ही मेरा सार है
तेरी आँखों से माँ जब भी गंगा बही
मुझको ऐसा लगा तू ही हरिद्वार है
मुक्तक(जी रही प्यास हूँ)
एक नदी हूँ मगर जी रही प्यास हूँ
स्नेह का दीप हूँ एक अरदास हूँ
मेरे आँचल में है हर खुशी हर घड़ी
यूँ तो जननी हूँ मैं फिर भी संत्रास हूँ
ऋतु गोयल
मील का पत्थर
मील का पत्थर
तुम
मुझे राह न बताओ
मुझे पगडंडियों पर चलने का अभ्यास है पुराना।
मत बताओ
सरल,कंटकरहित डगर
मुझे फूल अक्सर चुभा करते हैं।
अरे तेज़ रौशनी है वहाँ
अब आँखें चौंधिया जाती हैं।
मुझे मद्धम,डूबता सूरज बहुत है
दिखने को साफ-साफ सब कुछ।
जानते हो क्यों
क्योंकि
मुझे यकीं है
खुद पर
तुमसे अधिक।
क्योंकि खुद
खो भी गई तो क्या
वो ही मेरी मंज़िल होगी।
और
तुमने पहुँचा भी दिया तो क्या
मंज़िल तो वो होती है ना
जो राहगीर खुद तलाश करे।
मुझे मेरी थकान
उसके
अपनेपन
मीठेपन
को महसूस करना है
उस जगह......
जो मैंने खुद मीलों चल कर
तलाश की है......
ताकि मैं भी बन सकूं
एक मील का पत्थर...
ऋतु गोयल
मुक्तक तू मेरा दाम है
क़लम का मिज़ाज कुछ यूं है...
तू मेरा दाम है,तू मेरा नाम है
तू है सुबह मेरी,तू मेरी शाम है
मैं तेरी राधिका,जानकी मैं तेरी
तू मेरा श्याम है,तू मेरा राम है
गर तू मोली है तो, मैं कलाई तेरी
तू मेरा गीत है, रोशनाई तेरी
तू प्रणय है मेरा, मैं सगाई तेरी
तू मेरा पर्व है, मैं बधाई तेरी
तू गुलाल मेरा,मैं रोली तेरी
तू कहार मेरा,मैं डोली तेरी
तू आंगन मेरा,मैं रंगोली तेरी
तू मेरा फ़ाग है,मैं होली तेरी
ऋतु गोयल
वे चेरीब्लॉसम,चीड़,जुनिपर
यायावरी के कुछ दृश्य
आँखों में सदा ठहर जाते हैं.....
देवदार,चीड़, जुनिपर के
पत्तों पर लिख आई थी
अपना पता
और
वाशिंगटन में खिले
चेरीब्लॉसम के हर फूल में भी खिला आई थी अपना मन
अब वे मुझे
और मैं उन्हें
अक्सर याद किया करते हैं
कौन होगा मेरे सिवा
जो उन्हें यूँ बेइंतहा प्यार करेगा
और
मुझे कौन इस घने जंगल में भेजेगा
ख़ुश्बू, खिलावट और खूबसूरती
उनके सिवा
कौन सिखाएगा मुझे पत्थरों के शहर में
बार-बार
फूल होने का सबब
वो शऊर वो अदब
ज़िंदा रखे हैं मैंने
इसलिए अब तलक
अपनी रूह में
वो सारे एहसास.....
ताकि
जब-तब
कहीं भी
वो रंग-बिरंगे
चेरीब्लॉसम
देवदार,चीड़,जुनिपर
सब देख सकूं यहीं पर
अपने आस-पास......
ऋतु गोयल
तुम कहो ऐसी जगत की रीत क्यूं है
मेरा एक गीत जो अक्सर गुनगुनाया करती हूं....आज सांझा कर रही हूं
तुम कहो ऐसी जगत की रीत क्यों है
टूटता है दिल जहाँ, वह प्रीत क्यों है
बांधती हैं क्यों स्वयं को तट से नदियाँ
एक जैसा फ़लसफ़ा बीती हैं सदियाँ
इक नदी प्यासी रही जो जल भरी है
क्यों समुंदर में मिली, क्या बावरी है
उफ़! समुंदर ही नदी का मीत क्यों है
टूटता है दिल जहाँ, वह प्रीत क्यों है
कर दिए झंकृत समूचे तार मन के
अब अलंकृत हो गए हैं रोम तन के
महक उठती हर दिशा, मकरंद है ये
भावनाओं से बंधा अनुबंध है ये
फिर लबों पे यह बिरह का गीत क्यों है
टूटता है दिल जहाँ, वह प्रीत क्यों है
डोर से बन्ध कर पतंगें उड़ रही हैं
दूर रहकर भी हृदय से जुड़ रही हैं
गाँठ चुभती है मगर जुड़ती उसी से
तेज़ झोंके भी सहन करती ख़ुशी से
प्रेम में हर हार भी इक जीत क्यों है
टूटता है दिल जहाँ, वह प्रीत क्यों है
ऋतु गोयल
अटल बिहारी वाजपेयी
मेरे जीवन आदर्श अटल जी को समर्पित मेरी एक कविता....शब्दाजंलि
अटल गुणों की खान थे,सम्पूर्ण थे
एक शिखर पुरुष ह्रदय से पूर्ण थे
हुंकार कभी टंकार,कवि का ओज थे वे
राष्ट्र का अभिमान,युगों की खोज थे वे
वे धधकती ज्वाल एक मसाल थे
माँ भारती का चमचमाता भाल थे
सुशासन के उनको हर आसन आते थे
सहज,चुटीले उनको हर भाषण आते थे
वे रसीले बातों में कितना रस था
उनकी कथनी-करनी में कितना कस था
राजनीति की कीच में कुछ अलग खिले थे
थे औरों से शिकवे उनसे नहीं गिले थे
विश्व पटल पर हिंदी का सम्मान किया था
भाषण हो या कविता माँ का गान किया था
कभी परमाणु कभी कारगिल-संग्राम थे वे
कभी भावों में डूबी ग़ज़ल की शाम थे वे
अटल इरादे उनके भू को राजमार्ग से जोड़ा था
दुनिया के देशों का रुख भारत की ओर मोड़ा था
सिंहासन शोभित था उनसे वे थे नवरत्न
कद्दावर थे मिला तभी उनको भारत रत्न
कोटि-कोटि दिल कहते हैं कोटिशः तुम्हें नमन
युगों-युगों तक महकेंगे तुमको श्रद्धा सुमन
ऋतु गोयल
आतंकवाद
मेरी एक कविता पुलवामा में हुए शहीदों के नाम.....
तुम पिशाचों के वंशज,तुम असुरों के अनुयायी हो।
तुम मानव और मानवता के, बीच बड़ी सी खाई हो।
तुम जाति के हो विषधर, धर्म तुम्हारा डसना है।
जहाँ बिलखती करुणा तुमको, तो वहीं पर बसना है।
हम धरती के वासी जाने, तुम कहाँ के वासी हो।
हो मौत के सौदागर तुम, निश्चित नरक प्रवासी हो।
तुम गिद्दों से भी गए गुजरे, जो ज़िंदा इंसां खाते हो।
तुमसे बेहतर श्वान तुम तो, अपनों को डस जाते हो।
खूं से लथपथ कर दी तुमने, स्वर्ग समान फ़िज़ाएँ थी
और विषैली कर दी तुमने, खुशबूदार हवाएं थी
तुमको जो भी सिखा रही हैं, नफरत की भाषाएं ये।
जाने कोख ये कैसी होंगी, कैसी हैं माताएं ये।
माँ, बहनों और सुहागिनों का, दर्द समझ न पाती हैं।
दूध उतरता है इनके या, ज़हर उगलती छाती हैं।
हो बेशक ये ताड़काएँ, मारीच पैदा करती हैं।
पर अंततः भूल गई क्या, हाथों राम के मरती हैं।
ये तुतलाती बोलियों को, जंग-जिहाद पढ़ाते हैं।
कैसे जनक हैं जो जन्में को, बारूद में सुलगाते हैं।
इनके निष्ठुर कंधों पर ये, बच्चे सैर नहीं करते।
हथियार लदे रहते हैं इनपे, इनकी ख़ैर नहीं करते।
ये क्या जाने जब अर्थी को, बूढ़े कन्धें ढोते हैं।
तब मेले के हरेक खिलौने, फूट-फूट कर रोते हैं।
दशरथ तलक नहीं बचे थे, श्रवण कुमार के श्रापों से।
तुमको श्राप झेलने होंगे, शहीदों के माँ-बापों से।
इतिहास गवाह है हमने पहले, कब तानी प्रत्यंचाएँ।
पर दुःशासन हो गर कोई, हम लहू भी पी जाएं।
हम वनवासी हमने तो बस, सबको गले लगाया है।
पर सागर को लांघ हमीं ने , रावण मार गिराया है।
महिषासुर हो गए हो अब तुम, हम पर भी रणचंडी है।
युद्ध करो बन कर योद्धा फिर, देखो कौन शिखंडी है।
हम रक्तबीज का सारे भू से, नामोनिशां मिटा देंगे।
सीमा पार करी है तुमने, तुमको धूल चटा देंगे।
जय हिंद
ऋतु गोयल
मुक्तक (प्रेम पर)
आईना का वो अब गरूर गया
संग काजल के मेरा नूर गया
मैं भी अब खुद में कहा बाकि हूँ
तू भी अब मुझसे बहुत दूर गया
तू ही पूजा है तू इबादत है
तू ही तो एक मेरी अमानत है
भूल जाऊं तुझे ये नामुमकिन
याद करना तो मेरी आदत है
मुक्तक(सैनिकों पर)
ऐसा नहीं कि खुशबुएँ,फ़िज़ाएँ उन्हें अच्छी नहीं लगती।
ऐसा भी नहीं कि ज़ुल्फ़ों की घटाएं उन्हें अच्छी नहीं लगती।
पर जब-जब पुकारती हैं सरहदें उन्हें महफूज़ रहने को।
तब-तब घर की आबो हवाएं उन्हें अच्छी नहीं लगती।
ऐसा नहीं कि हाथ मेहंदी माहवार उन्हें गवारा नहीं है।
ऐसा भी नहीं कि दर्पण ने उन्हें कभी संवारा नहीं है।
पर मोहब्बत जुस्तजू गर किसी की हो जाये तो क्या करे।
उन्हें तिरंगे से ज्यादा कुछ भी जहां में प्यारा नहीं है।
मुक्तक( संस्कार)
उनके जैसा कुछ-कुछ शायद अब भी है
देख-रेख की एक कवायद अब भी है
दादा जी का कमरा सूना है लेकिन
आंगन में एक बूढ़ा बरगद अब भी है
नकली जीवन घर-घर में अब बसता है
आज समय भी इस जीवन पर हँसता है
ड्राइंग रूम में शोभित है लाफिंग बुद्धा
घर का बूढ़ा भीतर रोज़ तरसता है
मुक्तक(गोपी को रास)
गोपी को रास रचने को मधुवन तो चाहिए
रँगने को रंग सावरे सा तन तो चाहिए
जीवन यह वृंदावन सा संवर जाएगा मगर
इसके लिए एक राधिका सा मन तो चाहिए