कुर्सी
ओह! कुर्सी
तू ध्वस्त
वे मस्त
तू रक्षक
वे भक्षक
तू समय
वे असमय
तू डोले
वे सो रहे
तू चलन
वे बदचलन
तू दक्ष
वे भ्रष्ट
ऐ कुर्सी
तू मौन
लोकतंत्र की गढ़ी-मढी
कुछ तो बोल
ॠतु गोयल की मानवीय संवेदनाओं से जुडे ब्लाग में आप का स्वागत है
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