Monday, December 15, 2014

सच...सच कहता है

               

 सच ..सच कहता हूँ



मैं आईने में 
अपना नहीं 
उनका देखता हूँ प्रतिबिम्ब 
परछाई में मेरे 
उग आई हैं सींग 
धीरे -धीरे बन्दर में बदलता 
नकलची मानव हूँ
चील व बाज हूँ
मौकापरस्त मंडराता 
इधर-उधर 

क्या ढूंढ रहा हूँ मैं 
उनमें से उनको 
या खुद में से खुद को 
लिबासों में छिपता फिर रहा हूँ
फिर भी कितना उघाड़ा हूँ

किसी दूकानदार से कम कहां हूँ मैं 
अपनी बातों को सजाता चमकाता हूँ
थोड़ा शर्माता हूँ थोड़ा भय खाता हूँ 
खुद को हू-ब-हू कैसे धर दूं 
सब के सुर  में सुर मिलाता हूँ  

अनुभूतियों के बिना भी भरता  हूँ कागज़ 
शब्द मेरी पूजा है 
पर शब्दों में मौजूद ही कहाँ हूँ 
इसलिए 
हर दिन जन्मता 
हर दिन मरता हूँ  
सच 
हक़ीकत के सिवा 
सब कुछ करता हूँ


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