Saturday, December 13, 2014

दीदी

         
                    दीदी 

ताउम्र
यूँ रूठी रही
हाथों की रेखाएं उनसे
कि वक्त से पहले ही
ढलने लगी थी वह
मोम सी
पिघलने लगी थी वह
लाठी सी पतली हो गई थी
गोल मटोल कद काठी उनकी
गठरी सी सिमटती चली गई
जिसे मिटना कहते है
वैसे तिल-तिल
मिटती चली गई

और जब नहीं रही
तो तय था
छोड़ तो गई
हम सबको
अपनी दर्द भरी कहानी
पर उससे भी कही ज्यादा
हौसले से
जीने के तौर तरीके
और
कोई कैसे जीये
इतने दर्द
इतने हौसले
इतने  सलीके


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