Monday, December 15, 2014

घर के नहीं होते पर ...




 घर के नहीं होते पर ...



मैं नहीं उड़ना चाहती
नहीं छोड़ना चाहती
अपनी ज़मीन
मैं तो समेट लिया करती हूँ
अपनी इच्छाओं के पंखों में
अपना छोटा सा आंगन
और यहीं उतार देती हूँ
अपने सपनों का चांद
आसमान यहीं
बुला लिया करती हूँ
विचरने को
धरती पर खुशनुमा
 रंग भरने को
सितारे खुद उतर आते हैं
मुझे रौशन करने
मेरी तकदीर बनने
क्योंकि
वे सब जानते हैं
मेरी उड़ान में
बंधा है घर
और घर के कब
होते है पर ...

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